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न दीया हे ॥ कवि कहे गंगदास, गंगा के निकट बी च, एक सेर अनाजने जगत जेर कीया हे ॥ १ ॥ ॥ प्रास्ताविक संग्रह ॥ ज्ञानवंतने केवली, व्यादिक हिना ॥ वृहत्कल्पनी नामां सरखा जाष्या जाण ॥ १ ॥ क्रिया मात्र कृतक मैक्य, दडरचुन्न समान ॥ ग्यान कह्युं उपदेश पद, तास बार सम जान खजुप्रासम किरिया कही, ज्ञान जानसम जो कलियुग एह पटंतरो, बूऊ विरला कोय ॥ ३ ॥ हुं. तुज पूनुं हे लम्बी, कृपया घरे कां जाय ॥ सूरा दाता चतुर नर, ते तुऊ कां न सुहाय ॥ ४ ॥ सूरा घर रंगापणुं, दाता दे परहब || चतुरां घर मुऊ सोकडी, तिले कृपण तो लियो सब ॥
॥ सवैयो ॥ धीरज तात कुमा जननी, परमारथ मित्त महारुचि मासी ॥ ज्ञान सुपुत्त सुता करुणा मति, पुत्र वधू समता प्रतिनासी ॥ उद्यम दास वि वेक सहोदर, बुद्धि कलत्र गुनोदय दासी ॥ नावकु टुंब सदां जिन्हके ढिग, सो मुनिकुं कहियें गृहवासी ॥
दोहा ॥ जीवदया गुणवेलडी,रोपी रुपन जिणंद !| श्रावक कुन मारग चढी, सींची जरत नरिंद ॥ १ ॥ क्रोध मान माया करी, लोन लग्यो महिलार ॥ वीतराग वाणी विना, किम पामे जव पार ॥ २ ॥ ॥ उप्पो ॥ मधुमाखी महुयाल, रातदिन जतने राखे ॥ सदा करे संजाल, चांच नरि कढ़िय न चाखे ॥ नम
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