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(५) सेवा करवा रसीयो चं, पण जरतमां दूरें वसीयो
, महा मोह राय कर फसीयो _ ॥ सुणो० ॥५॥ पण साहिब चित्तमां धरीयो , तुम आणा खडग कर ग्रदियो , पण कांक मुजथी मरियो ॥ सुणो० ॥ ६ ॥ जिन उत्तम पूंठ हवे पूरो, कहे पद्मवि जय था शूरो, तो वाधे मुज मन अति नूरो ॥ सुगो० ॥ 3 ॥ इति ।।
॥अथ उपसर्गहरस्तवनम् ॥ || नवसग्ग हरं पासं, पासं वदामि कम्मघण मुक्कं ॥ विसहर विस निन्नासं, मंगल कन्नाण श्रा वासं ॥ १ ॥ विसहर फुलिंग मंतं, कंते धारे जो सया मणु ॥ तस्स गह रोगमारी, उठ जरा जति नवसामं ॥ २ ॥ चिहन दूरे मंतो, तुऊ पणामोवि बढुफलो दोइ ।। नर तिरिएसवि जीवा, पावंति न पुरक दोगचं ॥ ३ ॥ तुद सम्मत्ते लमे, चिंतामणि कप्पपायवप्नहिए ॥ पावंति अविग्घेणं, जीवा अय रामरं ठाणं ॥ ४ ॥ श्र संथु महा जस, नत्तिजर निप्नरेण हिआएण ॥ ता देव दिऊ बोहिं, नवे नवे पास जिणचंद ॥ ५ ॥ जिंकिंचि नाम तिबं, सग्गे पायालि तिरिय लोगंमि ॥ जाई जिण बिंबाइं, ताई सवाई वंदामि ॥ ॥ इति ॥
॥अथ अरिहंत चेत्राणं ॥ ॥अरिहंत चेत्राणं ॥ करेमि. कानस्सग्गं ॥ १ ॥ वंदण वत्तिाए ॥ पूषण वत्तियाए ॥ सकार वत्ति