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चनगति मारग बंध, नविक जन घर रह्या रे ॥ ज० ॥ चेतन समता संग, रंगमें उमद्या रे ॥ रं० ॥ ३ ॥ स म्यक् दृष्टि मोर, तिहां हरखे धणुं रे ॥ ति० ॥ देखी अद्भुत रूप, परम जिनवर तणुं रे ॥ प० ॥ प्रनुगुण नो उपदेश, ते जलधारा वही रे || ते० ॥ धरम रु चि चित्त भूमि, मांहि निश्चल रही रे || मां० ॥ ४ ॥ चातक श्रमण समूह, करे तव पारणो रे ॥ क० ॥ अनुभव रस यास्वाद, सकल दुःख वारयो रे || स० ॥ अनाचार निवारण, तृण अंकूरता रे ॥ तृ० ॥ विरतितला परिणाम, ते बीजनी पूरता रे ॥ ते० ॥ ५ ॥ पंच महाव्रत धान्य, तणां कर्षण वध्यां रे ॥ त० ॥ साध्य जाव निज थापी, साधनताएं सध्या रे || कायिक दरिस ग्यान, चरण गुण उपना रे ॥ च० ॥ प्रादिक बहुगुण सस्य, आतम घर नीपना रे ॥ खा० ॥ ६ ॥ प्रनुदरिस महामेह, तणे परवेश में रे ॥ त० ॥ परमानंद सुनिन्छ, थया मुऊ देशमें रे ॥ ८० ॥ देवचंद जिनचंद, तणो अनुभव करो रे ॥ त० ॥ सा दि अनंत काल, खातम सुख अनुसरो रे ॥ श्र० ॥ ७ ॥ ॥ अथ द्वाविंशश्रीने मनायजिन स्तवनं ॥ ॥ पद्मप्रनजिन जइ लगा वस्या | ए देशी ॥ ॥ नेम जिलेसर निज कारज करयुं, बांमयो सर्व विनात्रो जी ॥ प्रातमशक्ति सकल प्रगटी करी, या स्वाद्यो निजनावौ जी ॥ १ ॥ ने० ॥ राजुल ना री रे सारी मति धरी, अवलंब्या अरिहंतो जी ॥ उत्त
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