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(५२५) अनूप, कार्यार्थि तेह ग्रहे री॥॥ जे कारण ते का र्य, थाए पूर्ण पदें री ॥ उपादान ते हेतु, माटी घट ते वदे री ॥ ३ ॥ उपादानथी निन्न, जे विषु कार्य न थाये ॥ न दुवे कारज रूप,कर्त्ताने व्यवसाये ॥ ४ ॥ कारण तेह निमित्त, चकादिक घट नावें ॥ कार्य तथा समवाय, कारण नियत ने दावे ॥ ५॥ वस्तु अनेद स्वरूप, कार्यपणुं न ग्रहे री॥ते असाधारण हेतु, कुंनें स्थास लहे री॥६॥ जेहनो नवि व्या पार, निन्न नियत बहुनावी ॥ नूमि काल आकाश, घट कारण सदनावी ॥ ७ ॥ एह अपेदा हेतु, या गममांहि कह्यो री ॥ कारण पद उतपन्न, कार्य थये न लह्योरी॥॥कर्ता आतम इव्य,कारज सिदिपणो री॥ निज सत्तागत धर्म, ते नपादान गणोरी॥॥ योग समाधि विधान, असाधारण तेह वदे री॥ विधि आचरणा नक्ति, जिणे निज कार्य सधे री॥१०॥ नरगति पढम संघयण, तेह अपेदा जाणो ॥ निमि ताश्रित नपादान, तेहने लेखे आणो ॥११॥ निमित्त हेतु जिनराज,समता अमृत खाणी ॥ प्रनु अवलंबन सिदि.नियमा एह वखाणी॥१शा पुष्ट हेतु अरनाथ, तेहने गुणथी हलियें ॥रीफ नक्ति बहुमान,नोग ध्या नथी मलियें ॥ १३॥ मोहोटाने नत्संग, बेगने शी चिंता ॥ तिम प्रनु चरण पसाय, सेवक थया निचिंता ॥ १४ ॥ अर प्रनु प्रनुता रंग,अंतर शक्ति विकासी॥ देवचंने थानंद, अक्ष्य नोग विलासी॥१५॥इति॥