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योगी ॥ नोगोपनोग दोय विघन निवारी, पूरण जोग सुनोगी हो ॥ मत्रि० ॥ ए ॥ ए अढार दूषण वर्जि त तनु, मुनिजन वृंदें गाया || अविरति रूपक दोषनिरू पण, निर्दूषण मन जाया हो ॥ मलि० ॥ १०॥ इणविध परखी मन विशरामी, जिनवर गुण जे गावे ॥ दीनबंधुनी महेर नजरथी, श्रानंदघन पर पावे हो ॥ म० ॥ ११ ॥
मु०
॥ अथ श्रीमुनिसुव्रत जिनस्तवनं लिख्यते ॥ ॥ राग काफी ॥ श्राघा ग्राम पधारो पूज्य ॥ ए देशी ॥ ॥ मुनिसुव्रत जिन राय, एक मुक्त विनति निसुलो ॥० ॥ श्रातम तत्त्व क्युं जाएंयुं जगत गुरु, एह वि चार मुऊ कहियो ॥ श्रातम तत्त्व जाण्या विल नि रमल, चित्त समाधि नवि लहियो । मुनि० ॥ १ ॥ ए की ॥ कोई अबंध आतम तत माने, किरि या करतो दीसे ॥ क्रियातणुं फल कहो कुण जोग वे, इम पूढधुं चित रोशें ॥ मुनि० ॥ २ ॥ जडचेतन ए श्रातम एकज, स्थावर जंगम सरिखो । दुःख सु ख संकर दूषण यावे, चित विचारी जो परिखो | मुनि० ॥ ३ ॥ एक कहे नित्यज यातम तत, या तम दरिस जीनो ॥ कृत विनाश अकृतागम दूप ए, नवि देखे मतिहीणो ॥ मु० ॥ ४ ॥ सौगत म तिरागी कहे वादी, दणिक ए खातम जाणो ॥ बंध मोख सुख दुःख न घटे, एह विचार मन प्राणो ॥ मुनि० ॥ ५ ॥ नूत चतुष्क वर्जित श्रातम तत, स त्ता अलगी न घटे | अंध शकट जो नजर न देखे,