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(४७१) ॥ २ ॥ गहना नेद बहु नयण नीहालतां, तत्त्वनी वात करतां न लाजे ॥ उदर जरणादि निज काज कर तां थकां, मोह नडिया कलिकाल राजें ॥ धा० ॥ ॥ ३ ॥ वचन निरपेक्ष व्यवहार जूगे कह्यो, वचन सापेद व्यवहार साचो ॥ वचन निरपेद व्यवहार संसार फल, सांगली आदरी कां राचो ॥ धा॥ ॥ ४ ॥ देव गुरु धर्मनी गुदि कहो केम रहे, केम रहे गुड़ श्रदान आयो " गुरु श्रमान विषु सर्व किरिया करी, बार पर लीपणुं तेह जाणो ॥ धा॥ ॥ ५ ॥ पाप नही कोई उत्सूत्र नाषण जिस्युं, धर्म नही को जग सूत्र सरिखो ॥ सूत्र अनुसार जे न विक किरिया करे, तेहनुं शुक्ष त्रारित्र परिखो ॥ ॥ धा० ॥ ६ ॥ एह नपदेशनो सार संदेपथी, जे न रा चित्तमें नित्य ध्यावें ॥ ते नरा दिव्य बहु काल सुग्व अनुनको, नियत आनंद घन राज पावे ॥धा०॥७॥ ... ॥ अथ श्रीधर्मजिनस्तवनं लिख्यते ॥
॥राग गोडी सारंग ॥ रसीयानी देशी॥ ॥धर्मजिनेसर गावं रंगरां, नंगम पडशोहोप्रीत ॥ जिनेसर ॥ बीजो मनमंदिर आणुं नही, ए अम कु लवट रीत ॥ जिनेसर ॥ धर्म० ॥१॥ धरम धरम करतो जग सदु फिरे, धरम न जाणे हो मर्म॥ जि०॥ धरम जिनेसर चरण ग्रह्या पली,कोइन बांधे हो कर्म॥ जि० ॥ धर्म० ॥ ॥ प्रवचन अंजन जो सदगुरु करे, देखे परम निधान ॥ जि ॥ हृदय नयण नि