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ग्रहण मति धरजो रे ॥ श्री श्रे० ॥ ५ ॥ अध्यातम जे वस्तु विचारी, बीजा जाएण लबासी रे ॥ वस्तुगतें जे वस्तु प्रकासे, खानंदघन मतवासी रे ॥ श्रीश्रे० ॥ ६ ॥ ॥ श्रथ वासुपूज्य जिन स्तवनं लिख्यते ॥ ॥ राग गोडी तथा परजीयो || तूंगिया गिरि शिखर सोहे ॥ ए देशी ॥
॥ वासुपूज्य जिन त्रिभुवन स्वामी, घननामी पर नामी रे || निराकार साकार सचेतन, करम करम फल कामी रे ॥ वासु० ॥ १ ॥ निराकार ने सं ग्राहक, नेदग्राहक साकारो रे ॥ दर्शन ज्ञान हुनेद चेतना, वस्तु ग्रहण व्यापारो रे ॥ वासु ॥ २ ॥ कर्त्ता परिणामी परिणामो, कर्म्म जे जीवें करियें रे ॥ एक अनेक रूप नय वादें, नियतें नर अनुसरियें रे ॥ वासु०॥ ॥ ३ ॥ दुख सुख रूप करम फल जाणो, निश्चय एक
नंदो रे | चेतनता परिणाम न चूके, चेतन कहे जिन चंदो रे ॥ वासु ॥ ४ ॥ परिणामी चेतन परिणामो, ज्ञान करम फल नावी रे ॥ ज्ञान करम फल चेतन कहियें,
जो तेह मनावी रे ॥ वासु ॥ ५ ॥ खातम ज्ञानी श्रमण कहावे, बीजा तो इव्यालिंगी रे ॥ वस्तुगतें जे वस्तु प्रकाशे, आनंदघनमति संगी रे ॥ वा ॥ ६ ॥ इति ॥ ॥ अथ श्रीविमलजिन स्तवनं प्रारभ्यते ॥
॥ राग मल्हार ॥ इमर आंबा खांबली रे ॥ ए देशी ॥ ॥ ख दोहग दूरें टव्यां रे, सुख संपदशुं नेट ॥ धींग | माथे किया रे, कुण गंजे नर खेट ॥ विम