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फियो० ॥ अरु कदिएक राजा जयो, गरथकी गरम ॥ जब गरव याणकर वायो, पारका मरम ॥ पार० ॥ पण निर्मल जुगमें जैन, कीयो नही धरम ॥ अब मनख जनममें चेत, घडी गुन याइ ॥ घडी० ॥
० ॥ १ ॥ में सुर नर का सुख वार, अनंती पाया ॥ अनं० ॥ महारे शिव समताका सूरा, हाथ नही या या ॥ में कुगुरु ने कुदेव, चना कर ध्याया ॥ जा ॥ में उलज्यो अनादि अयान विषय जोग जाया ॥ में पड्यो लोनके फंद, जोडतो माया | जोड़ | प ए लग्यो यंत जब खाय, कालने खाया ॥ अव प रिहर सब परमाद, धर्म कर नाइ ॥ धर्म० ॥ श्र० ॥ २ ॥ अब दुर्लन अवसर नहीं, तुं सुंकृत कर रे ॥ तुं सुकृ० ॥ ब दान शियल तपनाव, हियामें धर रे ॥ तुं कर्मकी माला काट, पाप परिहर रे ॥ पाप० ॥ अब वार वार कहुं तोहे, जगतसें तर रे ॥ तुं निर्मल नयरों देख, नरकसुं कर रे ॥ नर० ॥ तुं शीख सुगुरुकी मान, अग्यानी नर रे । अब पर त्री या कर जान, वेन ने माइ ॥ बेन० ॥ अब० ॥ ३ ॥ अब जिनवर मुफ मन जायो, सदा गुण गानं ॥ सदा || अब इतनी किरपा करो, नरक नहिं जाऊं ॥ अब जव जव मांही देव, जिनेसर पाउं ॥ जि० ॥ में मन वच काया करी, चरण चित लानं ॥ ए दया ध रम हितकार, सदा में चानं ॥ सदा० ॥ ए चोराशी के मांहे, फेर नहिं खानं ॥ युं धरज करे जिनदास,