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नरसिंह || सुरपति पाय लगाडियो जग राखी जिल लीह ॥ १३४ ॥ प्रसन्न चंद काउस गमां, कोपी युद्ध करंत ॥ कोप शम्यो केवल लघुं, मोहटो ए गुणवंत ॥ १३५ ॥ अश्मंतो सुकुमाल मुनि, वखाएयो वीर जिणंद || इरियावदी पडिक्कमतां केवल लघुं श्राणंद ।। १३६ ।। विरजिनवचनें थिर रह्यो, श्रेणिक सुत मे घ कुमार ॥ जातिसमरण पामियो, करि दो नयणां सार ॥ १३७ ॥ हाट वेचाणी चंदना, सुना चढयुं कलंक ॥ दमयंती नल विजोग लह्यो, एह कर्मनो वंक ॥ १३७ ॥ कलावती कर बेदिया, शैपदी का दयां चीर । अनि शितल सीता कस्यो, शील गुणें थयुं नीरं ॥ १३९ ॥ चंदना चरण मृगावती, खमा विनिज अपराध || केवल जहि गुरुणी दियो, दो जीव टयो विषवाद ॥ १४० ॥ चंद कलंक सायर कस्यो, खारो नीर किरतार || नवसो नवाणुं नदी त पो, देखो ए जरतार ॥ १४१ ॥ हरिचंदराय करम वरों, शिर वसुं कुंब घर नीर ॥ कर्म वशें नर सवि नम्या, जे जग बावन वीर ॥ १४२ ॥ गन ब्राह्मण स्त्री बालका, दृढप्रहारें हत्या कीध ॥ चार पोल का उसग रही, पटमास केवल लीध ॥ १४३ ॥ मेरु ढने ने ध्रुव चजे, सायर लोपे लीह ॥ कीधां कर्म न तूटियें, जो नगे पश्चिम दीह ॥ १४४ ॥ कीधां कर्म तो बूटियें, जो कीजें जिनधर्म ॥ मन वच कायायें करी, ए जिन शासन मर्म ॥ १४५ ॥ कर्म प्रकाशी