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जा दरिसण नयी जी, जी,
(२६ए ) सिम ॥ चेश्य जिण पडिमा कही जी, सूत्र सिहां त प्रसि ॥ चतुर नर समजो विनय प्रकार, जिम लहियें समकित सार ॥ चतुर ॥ १५॥ धर्म खिमा दिक नांखि जी, साधु तेहना रे गेह ॥ आचारय
आचारना जी, दायक नायक जेह ॥ चतुर ॥१६॥ उपाध्याय ते शिष्यने जी, सूत्र नणावणहार ॥ प्र वचन संघ वखाणियें जी. दरिसण समकित सार ॥ चतुर ॥ १७ ॥ नक्ति बाह्य प्रतिपत्तिथी जी, हृद य प्रेम बहुमान ॥ गुण थुति अवगुण ढांकवा जी,
आशातननी हाण ॥ चतुर० ॥ १७ ॥ पांच नेद ए दश तणो जी, विनय करे अनुकूल ॥ सीचे तेह सु धारसें जी, धर्म वृदनूं मूल ॥ चतुर० ॥ १५ ॥ ढाल ॥धोबीडा तूं धोये मन, धोतीयूं रे ॥ ए देशी ॥ त्र ण शुदि समकित तण) रे, तिहां पहेली मन शुद्धि रे ॥ श्री-जिनने जिनमत विना रे, जूठ सकल ए बुदिरे ॥ चतुर विचारो चित्तमां रे ॥ ए टेक॥२०॥ जिन जगते जे नवि थयुं रे, ते बीजाथी नवि थाय रे॥ एवं जे मुख जांखियें रे, ते वचन शुक्षि कहेवाय रे ॥ चतुर ॥ १॥ यो नेद्यो वेदनारे, जे सहतो अनेक प्रकार रे ॥ जिण विण पर सुर नवि नमे रे, तेहनी काया शुरू उदार रे ॥ चतुर ॥ २२॥ ॥ ढाल ॥ मुनि जन मारगनी ॥ ए देशी॥ समकित दूषण परिहरो, तेमां पहिली ने शंका रे ॥ ते जिनव चनमा मत करो।जेहने सम नृप रंका रे॥ समकित