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(१०६) अथवा जो तनने ॥ मनह मनोरथ हो के तो सवि तु रत फले,तुज मुख देखी हो के हरखने हेज मिले ॥३॥ प्राडा मुंगर हो के दरिया नदीय घणी, शकति न तेहवी हो के आईं तुऊ जणी॥ तुझ पाय सेवा हो के सुरवर कोडि करे, जो एक यावे हो के तो मुफ पुःख हरे ॥४॥अति घणुं राति हो के अगनि मजीठ स हे, घणयुं हणियें हो के देश वियोग लहे ॥ पण गिरु आयु हो के राग ते उरित हरे, वाचक जस कहे हो के धरीयें चिन खरे ॥ ५ ॥ इति ॥
॥अथ श्रीवजंधर जिन स्तवनं ॥ ॥ देशी बिंदलीनी ॥ शंख संबन वज्रधर स्वामी, माता सरसती सुत शिवगामी हो, नावें नवि वंदो ॥ नरनाथ पदमरथ जायो, विजयावती चित्त सुहायो हो ॥ ना० ॥ १ ॥ खंम धातकी पछिम नागें, प्रनु धरम धुरंधर जागे हो ॥ ना० ॥ वह विजयमां नय री सुसीमा, तिहां थापे धर्मनी सीमा हो ॥ना० ॥ ॥ २ ॥ प्रनु मन अमें वसवू जेह, स्वपने पण फुलन तेह हो ॥ ना० ॥ पण अम मन जो प्रनु वसशे, तो धर्मनी वेलि ननसशे हो ॥ना०॥ ३ ॥ स्वपने प्रमुखें निरखंतां, अमें पामुं सुख हरखंता हो ॥ना ॥ जेह स्वप्न रहित कह्या देवा, तेहथी अमें अधिक कहेवा हो ॥ ना० ॥४॥ मणि माणिक कनकनी कोडी, राणिम इधि रमणी जोडी हो ॥ना॥प्रनु दर्शनना सुख आगे, कहोंयधिकेलं कोण मागे हो॥ना॥५॥