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ति ॥ पाप खमावुं खापणां, जे कीधां एकांत ॥ १ ॥ ढा ल ॥ एकांत कटुं सुगोस्वामी, डुंतो चरण तुमारा पामी ॥ मुज मांहे कपट बे बहुलां, तेतो सुणतां मन थाये मदुलां ॥ २॥ परबि प्रगट में कीधां ॥ पाठांतरे ॥ प्रछन्न प्रगट में कीधां, कूडां त्राल में परने दीघां ॥ तेथी बोडावो मुजतात, शांतिनाथ सुष्णो मोरी वात ॥ ३ ॥ दोहा ॥ नव अनंत नमी वियो, चरण तुमारे देव ॥ जि म राख्युं पारेवहुँ, तिम राखो मुज हेव ॥ ४ ॥ ॥ ढाल || हवे एकेंदियादिक जीव, उहव्या करता प्रति रीव ॥ तस लाख चोराशी नेद, राग द्वेष प माड्या खेद ॥ ५ ॥ मृपा बोलंतां नावी लाज, तो किम सरशे यातम काज ॥ चोरी इए जव परजव की धी, पररमणीशुं दृष्टिज दीधी ॥ ६ ॥ दोहा ॥ मधु विंडसम विषय सुख, दुख तो मेरु समान ॥ मान वि मन चिंते. नही, करतो कोड अज्ञान ॥ ७ ॥ ॥ ढाल ॥ अज्ञान पणे ऋषि मेली, व्रतवाडि नली परें जेली || हवे सार करो प्रभु मोरी, रात दिवस से वा करूं तो ॥ ८ ॥ बहु गुनही बुं श्रीशांति, मु ज टालो जवनी चांति ॥ ढुंतो मागुं हुं अविचल रा ज, इम पनले श्रीजिनराज ॥ ए ॥ इति संपूर्ण ॥ ॥ श्रथ सिद्धाचल स्तवनं ॥
॥ महारुं मन मोह्युं रे श्री सिद्धाचजें रे, देखीने ह रषित थाय ॥ विधिशुं कीजें रे यात्रा एहनी रे, जव नवनां दुःख जाय ॥ मा० ॥ १ ॥ पांचमे खरे रे पा