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(५३) कगीयो जी, दूधडे वूठडा मेह ॥ वाचक सहज सुंदर तणो जी, नित्यलान प्रनु गुणगेह॥शां॥५॥इति ॥
॥ अथ पार्वजिनस्तवनं ॥ ॥ सुगुण सोनागी रे के साहेब माहेरा, श्रीचिंता मणि पाश ॥ पूरव पुण्ये रे के दरिसण देखीयें,पूगीमा रा मनडानी आश ॥ हुँ बलिहारी रे के जावं तारा नामनी ॥ १ ॥ काशी देवों रे के नगरी वाराणसी, अ श्वमेम राया कुलचंद ॥ माता वामा रे के प्रनुजीने ज नमीया, दीठडे परमानंद ॥ढुं॥२॥ मूरत सूरत रे के निरखीने हरखीएं, सांजल मोरा स्वाम ॥ वान वधा " रणरे के.जगमां सुरतरु, तुं मुफ बातम राम ॥ढुं०॥ ॥ ३ ॥ लाल सुरंगी रे के अंगी शोनती, सोहे सोहे प्रनुजीने अंग ॥ शिखर बनाव्यु रे के सुंदर कोरणी, दिसे दिसे नव नवा रंग ॥ ढुं० ॥ ४ ॥ शिरपर सो हे रे के मुकुट जडावनो, काने कुंमल श्रीकार ॥ के. कणदोरो रे के बांहे वेरखा, कंठडे नवसरो हार ॥ ढुं० ॥ ५॥ विधिपद देहरे रे के मूल नायक प्रन, लुज मंझण जिनराज ॥ नाविक श्रावक रे के नावे नावना, साहेब गरीब निवाज ॥ ढुं० ॥ ६ ॥ कोई कुमतिया रे के प्रजुने माने नहिं, ते रडवडो संसार ॥ नव दमकमांहे रे के गति ने तेहनें, नहिं तीये नवनो पार ॥ ढुं० ॥ ७ ॥ सूत्र सिमातें रेके जिनप्रतिमा कही, जिन सरखी निरधार ॥ प्रजो प्र रामो रे के नवियण नावगुं, जिम पामो शिव सुख