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॥ सि० ॥ ४॥ वाचकशेखर की र्तिविजय गुरु, पामी तास पसाय धर्म तो रमें जिन चोवीशना, वि नय विजय गुए। गाय ॥ सि० ॥ ५ ॥ इतिवीर जिन ॥ ॥ अथ प्रजाती ॥ रागवेलावल ॥
| जब लगें समकित रत्नकुं पाया नही प्राणी ॥ तब लगे निज गुण नवि वधे तरुविण जैम पाणी ॥ ज० ॥ १ ॥ त संयम किरिया करो. चित्त राखो गम ॥ दर्शन विण निष्फल होय, जिम व्योमें चि त्राम ॥ ज० ॥ २ ॥ समकित विरहित जीवनें, शिव सुख होये केम ॥ विण हेतु कार्य न नमजे, मृदवि ए घट जेम ॥ ज० ॥ ३ ॥ परंपर कारण मोको, ए वे समकित मूल ॥ श्रेणिक प्रमुख तणी परें, होय सिद्धि अनुकूल ॥ ज० ॥ ४ ॥ चार अनंतानुबंधी या, त्रिक दर्शन मोह || ज्ञान कहे जे दय करे, वं दूं ते जितकोह ॥ ज० ॥ ॥ ५ ॥ इति संपूर्ण ॥
॥ अथ प्रजाति स्तवनं ॥ राग वेलावल ॥ ॥ तेदिन क्यारें यावशे, श्रीसिद्धाचल जाएं ॥ कपन जिणंदने पूजवा, सूरज कुंममां न्हाशुं ॥ ते० ॥ १ ॥ समवसरणमां बेसीनें, जिनवरनी वाणी ॥ सांजल साचे मनें, परमारथ जाली ॥ ते० ॥ २ ॥ समकित व्रत सुधां धरी, सद गुरुने वंदी ॥ पाप स रव लोइनें, निज प्रातम निंदी ॥ ते० ॥ ३ ॥ प डिक्कमणा दोय टंकनां, करशुं मन कोडें ॥ विषय क पाय वीसारीनें, तप करशुं होडें ॥ ते ० ॥ ४ ॥ वाहा