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________________ ( ४ ) " पहले कुछ नहीं था, उसमेंसे सृष्टिकी उत्पत्ति हुई " ऐसे विचारके लिये इस जैन फिलासोफीमें स्थान नहीं है । और यदि सच पूछो तो यह विचार किसी भी सत्य विचारशील प्रजाने स्वाकार नहीं किया है। जो लोग सृष्टिकी उत्पत्ति माननेवाले हैं, वे भी इस विचार से नहीं किन्तु दूसरी ही अपेक्षासे- दूसरी ही रीतिसे इस वातको मानते हैं । कुछ नहीं था, शून्य था तो उसमेंसे सृष्टि कहांसे आई ? कोई वस्तु है - कोई पदार्थ है, उसीमेंसे यह प्रगट हुई है- रची गई है, ऐसा कहते हैं। इसमें इतनी ही बातें समझ लेनेकी हैं, कि पदार्थ में केवल कोई अवस्था ( हालत पर्याय ) उत्पन्न होती है । पदार्थ उत्पन्न नहीं होता है । यह पुस्तक किसी अपेक्षासे बनाई गई है । क्योंकि इसमें जो परमाणु हैं, वे इसके बननेके पहले जुदा जुदा हाल तमें थे, पीछेसे संग्रह किये गये हैं- इकट्ठे किये गये हैं । अर्थात् इस पुस्तकका आकार सृजित हुआ है । इसलिये इसकी आदि थी और अन्त भी आवेगा । इसी प्रकार से प्रत्येक जड़ पदार्थकी आकृतिके. विषय में समझना चाहिये, चाहे वह आकृति थोड़े ही क्षणतक रहे चाहे सैंकडों वर्षोंतक रहे। जहां आदि है वहां अन्त अवश्य आवेगा हम कहा करते हैं कि, हमारे आसपास कितनी ही (forces) बलवती शक्तियां काम कर रही हैं और उन शक्तियों में ही धौन्य और नाश ये दो स्वभाव हैं। ये सारी शक्तियां अथवा वल हममें और हमारे आसपास हर समय काम किया करते हैं । वस जैनी, इन सारी शक्तियों के समूहको ईश्वर कहते हैं। ओम् नामक प्रणव से भी इसी ब्रह्मका ज्ञान होता है। इस शब्दका प्रथम उच्चार उत्पत्तिका दूमरा स्थिति, ( धौव्य ) का और तीसरा नाशका विचार प्रद
SR No.010284
Book TitleJain Philosophy
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages23
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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