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________________ — इस तरह हम जड़ और जड़ शक्तियोंसे चैतन्य शक्तिको जुदा करते हैं। इन चैतन्य शक्तियोंको अर्थात् आध्यात्मिक शक्तियोंको ही हम मनते हैं। एक जैन श्लोकमें कहा है कि, "मैं उस आध्यात्मिक बलं या वीर्यको नमस्कार करता हूं कि, जो हमको मोक्ष मार्गपर चलनेका मुख्य कारण है, जो परमतत्व है, और सर्वज्ञ है । मैं उसे इसलिये नमस्कार करता हूं कि मुझे उस बल तथा वीर्यसरीखा होना है ।" इसलिये जहां जैनप्रार्थनाकी रीति वतलाई जाती है वहां ऐसा नहीं समझना चाहिये कि उससे किसी व्यक्तिके पाससे अथवा आध्यात्मिक स्वाभाविक गुणोंके पाससे कुछ प्राप्त करना है । परन्तु उसी 'सरीखा होना है। कुछ ऐसा नहीं है कि, वह दैवी: व्यक्ति किसी चमत्कारसे हमको अपने सरीखा कर देगी । परन्तु जो भावना हमारे चक्षुओंके समक्ष उपस्थित की जाती है, उस भावनाके अनुसार यथार्थ वर्ताव करनेसे हम अपनेमें फेरफार करनेको समर्थ होते हैं और उससे हमारा स्वतः पुनर्जन्म हो जाता है । और उससे कोई ऐसे जीव हो जाते हैं, जिसका कि स्वरूप देवी तत्वरूपी ही होता है। परमात्मा अथवा ईश्वरके विषयमें यही हमारा विचार है, इसलिये ही हम परमात्माको भजते हैं। ऐसी इच्छासे नहीं, कि वे हम को कुछ दंगे; ऐसी आशास नहीं कि, वे हमको प्रसन्न करेंगे; ऐसे भरोसेसे नहीं कि, ऐसा करनेसे हमको कुछ खास लाभ होगा-स्वार्थापनका जरा भी विचार नहीं है । यह तो केवल ऐसा है कि, उच्च गुणों के लिये उच्चगुणों अथवा सद्गुणोंका वर्ताव करना और उसमें कोई भी दूसरा हेतु नहीं रखना।
SR No.010284
Book TitleJain Philosophy
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages23
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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