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जीवमात्र के लिए
'जिन जिन मत देखिए मेव दृष्टिनो एह । एक सरवन मूल मां, व्याप्या मानो ते ॥ तेह तत्वरूप बृजनो, 'मात्मधर्म' के मूल । स्वभाव भी सिद्धि करे, धर्म तेज अनुकूल ॥'
श्रीमद् राजचन्द्र चैन
4 संसार में यो मित्र-मित्र मत देखे जाते हैं, वह सब दृष्टि का भेद है । सब ही मत एक तत्व के मूल में व्याप्त हो रहे हैं। उस तत्वस्य बुल का मूल है 'मात्मधर्म', यो आत्मस्वभाव की सिद्धि करता है; और यही धर्म प्राणियों के अनुकूल है। इससे स्पष्ट होता है कि आत्मधर्म ही विश्वधर्म है और विश्वधर्म ही आत्मधर्म है। आचार्य कुम्बकुछ का संवादिस्वर
सबक संकीरह केवलिमिनेहि भणियं
सपके तं च सहणं । सहमाणस्स सम्मतं ॥
4 जितना चरित्र धारण किया जा सकता है उतना धारण करना चाहिए और जितना धारण नहीं किया जा सकता, उसका भट्टान करना चाहिए क्योंकि केवलानी तीर्थकर यमदेव ने महान करने वालों को सम्यम्युष्टि बतलाया है ।
4 महिंसाचार भारतीय जीवन का मेण्ड है तो अनेकान्तवाद भमण-संस्कृति का मानदण्ड। इन दोनों मापदण्डों के सहारे मनुष्य का मनोबल ये उठकर इष्टसिद्धि सर्वोच्च शिखर केस तक पहुँच सकता है।