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១០ जैनकथा रत्नकोप नाग आठमो.
॥ ढाल बबीशमी ॥ ॥थान सखि शामलीयो ॥ए देशी ॥ अथवा ॥राग मारु॥ कहे मुनि । वरजी हितकारी, तुमें धर्म करो नर नारी ॥ एतो प्रवहणनी परें तारे, नवसायर पार उतारे ॥ १ ॥ एहनी वांहे वलग्या जेह, सुख सादि , अनंत लह्यां तेह ॥ जे ए सुखमा रह्या माता, ते नरने वेदु नवें शाता ॥ २ ॥ सागार अने यणागार, विडं ने कह्यो निर्धार ॥ कारण शिव पदनां दोय, परं पर अनंतर जोय ॥ ३ ॥ मन साथै कलंक लगावे, तो उरख मिश्रित सुख पावे ॥ महणाक परे ते माटें, निःकलंक करो सुख साटें ॥ ४ ॥ कहो स्वामी कवण महणाक, तुमें जांखो अनोपम वाक ॥ गुरु कहे जरतें गुन गम, एक रत्नपुरानिध गाम ॥ ५ ॥ निवसे गुनदत्त व्यवहारी, तस नारी वसुंधरा सारी ॥ तस कूरख सरोवरें जायो, महणानिध पुत्र सुहायो ॥ ६ ॥ ते याव्यो योवन रंगे, परण्यो रमपी सुख संगें ॥ रहे नामिनीगुं नित्य नीनो, जाये योवन पूर नदीनो ॥ ७ ॥ एक दिन रयनी असवारी, पहोतो उद्यान मकारि ॥ तिहां रंग रसे सदु रमिया. ममप बेसीने जमीया ॥७॥ फरी चाव्या वन जोवान, मुनि कनो दीठो ध्यानें ॥ रह्यो चंपक तरुनी गया, मुनि कंचन बरणी काया ॥ ॥ ॥ प्रमुगुं एक तान लगाया,नहिं मन ममता ने माया ॥ मन अानंद अधिको पाया, वंद्या मुनिवरना पाया ॥ १७ ॥ मुनि ध्यान संपूरण कीधो, उपदेश यथोचित दीधो ॥ शुद्ध देव धर्म गुरु तत्त्व, समकिन मा रग ए सत्य ॥ ११ ॥ समकित सुरसूद अमूल, मानिक सुख जस फूल ॥ शिवपद फल आपे साचो, समकित गुणमा नवि राची ॥ १५ ॥ नहिं ए उपरांत रतन्न, एहनां घपां करजो यतन्न ॥ नहिं एदयी वंचव दूजो, दरिसण गुणने नवि पूजो ॥१३॥ योपशम विचार, वेदक दायिक गुण सार । सास्वादन पंचम जाणं, समकितना नेद बखाणुं ॥ १४ ॥ मिश्र समकित मिय्या मोह, अणाचार सबल बलि जोह ॥ ए सातनाव
वसमयी, दायिक उपशम लहंती ॥ १५ ॥ वेद कह्यो ए चरम प्रदेणं. सास्वादन वमते देशे ॥ प्रदेश वेदन हूंते, खयोवसम कन्यु लगवंत ॥ १६ ॥ ए सहित थोडोदी धर्म, धाराथ्यो दे शिवगर्म ॥ महणाक गुणी प्रतिबुको, नमकित श्रावक व्रत सीधो ॥ १७ ॥ गुरु बांदी याव्यो निजपुरमां, जिन