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जैनकथा रत्नकोष नाग आठमो. अपहरियो सांकेतिक अमरें, गयो निजमातनें देई हो ॥ को॥७॥ रादतनयथी गिरिनी गुफामां, हार शिला देश आडी हो ॥ मूके सुतनें तेह विलुछी, यत्न करीने माडी हो ॥ को० ॥ ॥ ते हिजसुतनें रातें ग लियो, जमते अजगरें जारी हो ॥ निसुणो नाई कर्म कमाई, झुं करे नर ने नारी हो ॥ को० ॥ ए॥यक्तं ॥ उदयति ॥ १ ॥ प्राप्तव्योनियतिवला श्रयेण योऽर्थः ॥२॥ एउपनय दाख्यो मंत्रीश्वर,त्रीजे नियति अनुसारी हो ॥ रामविजय कहे सुणो जवि प्राणी, जु तमें युक्ति विचारी दो ॥ को० ॥ १० ॥ दोहा ॥ चोथो चतुर कहे वत्ती, जे वोढुं ते साच ॥ पण पोतनपुरईश्वरें, ए नैमित्तिक वाच ॥ १ ॥ कीजे पोतनपति अवर, तस शिर विद्युत्पात ॥ पडशे स्वामी कगरे, मानी संघले वात ॥ ॥ नैमित्तिक कहे ए निपुण, मंत्रीश्वर शिरताज ॥ निजपति राखेवा सबल, वात वतावी आज ॥ ३ ॥ हुँ पण ए कहेवा नणी, धाव्यो बु शण ठाम ॥ सात दिवस लगें नियमयुत, स्वामी रहो निज धाम ॥ ४ ॥ रहो रहो रे जादव रीति नथी ॥ ए देशी ॥ कहे राजेश्वर सुणो मंत्री श्वर, एह वात केम कीजे रे ॥ परप्राणें निज प्राण उगारे, तेहने यधम कहीजे रे ॥क ॥१॥ मर नामें कुःख पामे मानव, किम जाणी तस हणीये रे ॥ तेहथी आप हणायो वारू, परनवें नय नवि गणी रे ॥ क० ॥ २ ॥ यमुक्तं वसुदेवहिं॥ हत्तूण परप्पाणे, अप्पाणं जो करे ३ सप्पाणं ॥धप्पाणं दिवसाणं, कएण पासेश्अप्पाणं ॥ १ ॥ पूर्वढाल॥ सकलधर्ममा प्रथम अहिंसा, नांखी जिनवरयंथे रे ॥ उहवे आप नप रने मुहवे, ते मुनि सूधे पंथें रे ॥ कण ॥ ३ ॥ तथाचोक्तं ॥ हिंसा त्या ज्या नरकपदवी सत्यमानापणीयं, हेयं स्तेयं सुरतविरतिः सर्वसंगानि वृत्तिः॥ जैनोधर्मोयदि न रुचितः, पापपंकायनेच्यस्तेन्यः सर्वेर्फटिति नित तिः सर्वदा सर्वथैव ॥ २ ॥ पूर्वढाल ॥ शुं ए प्राण सदा स्थिर रहेगे, या खर एक दिन मर रे ॥ पर हणीये निज प्राणने माटें, श्या उपर एक र, रे ॥ कर ॥॥ जीव एक उगारी तिण विषु, पडह धमारी वजाव्यो रे ॥ हिंसक जे जगमां अवतरिया, तेणें निजवंश सजाव्यो रे ॥०॥ ५।। नेह न दृष्टि विना सुख धन विष्णु. नारी विषु गृह जेम रे ॥ विप्र वेद विद्या विष उपशम, विषु विद्या वली नेम ॥रे ॥ क० ॥ ६ ॥ शूर शस्त्र
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