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जैनकथा रत्नकोष नाग प्राठमो.
रीजी रही तुं बजाए रे || हि० ||४|| शीलवती कहे माहरे रे, वालमजी निज हाथ ॥ वेणी रची ए प्रेमनुं, पहेराव्यो कंचुक नाथ रे || हि० ॥ ५|| पियुहाये ए उतरे रे, शाने कहो कां वात ॥ कंत विना हुं कोइनुनवि, मानुं कहे तिलमात रे || हि ॥ ६ ॥ राय कहे हुं ताहरो रे, जा नामिनी वुं जरतार ॥ शीलवती कहे स्वामीने, न घटे कहेवो ए वि चार रे ॥ हि० ॥ ७ ॥ सकल प्रजा रक्षक तुम्हें रे, पंचम बो लोकपाल ॥ करतां ए धन्यायने, पृथिवी जाय रसाताल रे | दि० ॥ ८ ॥ जे दुः शील परानवी रे, सतीयोनो खाधार ॥ ते जो शील खंमन करे तो, नहिं कोइ राखणहार रे ॥ हि० ॥ ए ॥ जेहनी रक्षा तेहथी रे, जय उपजे जगमांहे ॥ वाड नखे जो चीजडां तो, कुण करे एहनो न्याय रे ॥ हि० ॥ १० ॥ यक्तं ॥ गोत्रं विगोपितं तेन, पौरुपं चरितं तथा ॥ त्रा मितोमेदिनीपीठे, ऽयशःपटहकोऽखिले ॥ २ ॥ महार्घ्यमपि तेन स्वं विहितं रजसा समं ॥ परस्त्रीसेवनं येन, निर्लओन कृतं खलु ॥ ३ ॥ युग्मं ॥ पूर्व दाल || पासें वाणी तब कहे रे, सुए नई उजमाल ॥ सदु बांटे जे हने त्रिया, तु वांबे ते नृपाल रे ॥ हि० ॥ ११ ॥ शीलवती कहे मुफ तन्नने रे, कंत ने के गन्न ॥ ते विष्णु कोइ मे नहीं, साधुं मानजो मन्न रे ॥ हि॥ १२॥ यतः ॥ दोहो || केसरि केश यंग मणि, सरणाइ सुहडांद ॥ सती पयोधर कृपण धन, चढो हाथ मुछांह ॥४॥ पूर्वढाल || राय कहे संकेतनां रे. वचन प्रतीतिने काज ॥ साहामुं जोइ निहाल तुं, खोटं कहेतां मुज लाज रे ॥ हि० ॥ १३ ॥ आव्यो इहां हुं एकलो रे, शूरपाल ध्यनि धान || राय पुत्रियो इहां मूत्र, या वेठो हुं राजान रे || हि० ॥ १४ ॥ प्रत्यय सहित सुणी करी रे; वयण विमासे नारि ॥ कंत सही ए माहरो, जाणे इंगित कर रे || हि० ॥ १५ ॥ तव सन्मुख निरख्युं तेणें रे, अलखियो निज कंत || मन विकस्युं तन उन्नस्युं, नाठी मनडानी जांति रे ॥ हि० ॥ १६ ॥ सा हर्पित मनमां हुई रे, ययुं रोमांचित थंग ॥ जेम धनदर्शन मोरडी, तेम वाथ्यो अंतररंग रे ॥ हि० ॥ १७ ॥ दासीने फरमावीयुं रेखासी करो एहनी मेव | ए गुणवंती स्वामिनी, सेवो एहने जैम देव रे || हि० ॥ १८॥ स्नान कराव्युं तेहने रे, चंदन तनु चरचाय ॥ पांशुक पहेवियां, वर थापण शोनाय रे ॥ हि० ॥ १५ ॥ श्यामा ते
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