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३त - जैनकथा रत्नकोप नाग आग्मो. नहिं उतार,श्यो करो बो सोर ॥ कल ॥२३॥ राग पाणी तेह तापणी, फरि: न वोल्यो बोल ॥ कामिनीनो प्रेम गाढो, रंग रातो चोल ॥ कण् ॥ २ ॥ एक दिवस धाड आवी, वोलती मुख मार ॥ कर्मना संयोगद्रंती, विष ने घरवार ॥ क० ॥ २५ ॥ ऊतरे नहीं नारी केरां, नूषण तेणी वार ॥ बेदियां तस अंग सुंदर, खड्ग तीखी धार ॥ कण् ॥ २६ ॥ वलवले ते नारी कनी, फरे लोहीधार ॥ चरण दे नूमि कपर,पडी ते निरधार ॥॥ २७॥ आचस्यां एम आवे उदयें, नहिं को राखणहार ॥ राखो राखो मुरखें - जांखे, नित्यमंमिता नारि ॥ क ॥ २७ ॥ कंथ तेहनो नासी पेतो, कोई नाव्युं पास ॥ रौऽध्याने ते मरिने, गई नरकावास ॥ क ॥ २५ ॥ एम , जे परिनोग उपरें, राखे माया नरि ॥ तेहनी एह गति होवे, मो माया - दूर ॥ क ॥३०॥ बछे खमें ए नत्रीशमी,ढाल नाखी सार ॥ शांतिप्रनुनी . देशनाथी, पामियें जवपार ॥ कण् ॥ ३१ ॥ इति सप्तमनोगोपनोगो परि जितशत्रुनित्यमंमिताकथानके ॥ ३२ ॥सर्व ॥१४१० ॥श्तो॥६६॥ ॥अथाष्ठम अनर्थदमविरमाबत संबंधः ॥
॥दोहा॥ ॥हवे त्रीजु गुणवत प्रनु, कहे शांति जिनराज ॥ अनर्थदम विरमण करो, जिम सिजे आतमकाज ॥ १ ॥ अपध्यान पहेलु वली, पाप तणो उपदेश ॥ हिंस्रप्रदान त्रीजुं कह्यु, सुःखदायी सुविशेष ॥ २ ॥ तेम पाच रण प्रमादन, चोथो नेद वखाण ॥ चार नेद एम नीपजे, श्रोता सुणो सु जाण ॥ ३ ॥ पंच अतिचार एहना, प्रथम कह्यो कंदर्प ॥ रागें हास्या दिक वचन, बोले जे धरी दर्प ॥४॥ कौकुचपणुं निवारीये, मुख च नेत्र विकार ॥ हास्य जनक विटनी परें, ते वीजो अवधार ॥ ५ ॥ए प्रमा दथी नीपजे, मुखरपणुं तेम टाल ॥ असंवचनापी घणो, जेम तेम बोले बाल ॥६॥ महायनर्थ हेतु ए, पहेलो पाप उपदेश ॥ ए वर्जे जे मानवी,न लहे तेह किलेश ॥ ७ ॥ यमुक्तं ॥ बहूनां समवाये हि, सिमे कार्य समं फलम् ।। यदि कार्य विपत्तिः स्या, न्मुखरस्तन वाध्यते ॥ १ ॥ यन्यन ॥ अवियाणिय पहावं, पर चिनमतरिकका जं जपियं ।। किंपावयरतत्नोवि, दुङ अन्नपि लोमि ॥ २ ॥ पूर्वढाल ॥ वली चतुर्य अधिकरणनो, हल कुगर शकटादि ॥ सङ्ग करी मेहले नहि, तम नवि