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जैनकथा रत्नकोष नाग आठमो. नवपल्लव दुइ संयमवाडी, समताजल सींचतां जाडी ॥सा ॥ मो॥ ॥ १० ॥ वेदु मुनि निजगुणथी वाधे, साधन साधु ग्रहीने साधे ॥ सा ॥मो॥ अप्रमत्त नूमि निरधारी, मोह ऊपरें कीधी स्वारी ॥ सा० ॥ मो ॥ ११ ॥ नाग्यो मोह सवल नडवाह, चेतन जाति चल्यो उत्साह साग मो०॥ दीपमोह गुणगणे यावी, अंतर्मुहूर्त स्वारी टकावी ॥ सा ॥मो० ॥ १२॥ बेद करे आवरण वेदुनो, चेतन चढी तेरम गुण लीनो ॥ सा ॥ मो० ॥ प्रकट्यो केवलनाण विनास, नासक लोकालोक प्र काश ॥ सा ॥ मो ॥ १३ ॥ जय जय शब्द करे सुरराजी, देव निशाणे रघु अन गाजी ॥ सा० ॥ मो० ॥ वेदु मुनिवर केवल हि साधी, यंते सिदशा तेणें साधी ॥ सा ॥ मो० ॥ १४ ॥ हवे श्रीषेणादिक दोय युगल, त्रण पत्य आयु पालीने विमल ॥ सा० ॥ मो० ॥ तिहाथी चवि सौधर्मे चार, त्रीजे नवें सुरसुख लह्यां सार ॥ सा ॥ मो०॥ १५॥ ढाल सत्तरमी सुणतां प्यारी, शांति प्रनु गुण गाउँ विचारी ॥मो॥ सा॥ श्री गुरु सुमतिविजयनो शिष्य, राम कहे प्रथमो निश दीस ॥साणामो०॥१६॥
॥राग धन्याश्री॥ ॥ धातमा चित्तगुं चेत चातुरपणे, धर्म विण को दूजो न जगमां ॥ धर्म ते शु६ सहजातमा आपणो, तारो ते सही तुज वगमां ॥ था ॥१॥ निज उपादानथी निमित्त वल पामीये, धर्म अविरु६ सुविगुरू लेशी ॥ निमित्त शुन तेह जन संकया जाएजो, तुरत ते नक्तने मुक्ति देशी ॥धा० ॥ ॥ माहरे मन घणी नक्ति थुगवा तणी, शांति प्रनु रास रसनाधिकारें ॥ तेहनो खंग पहेलो थयो पुण्यथी, सनिलो नवि यणो निर्विकारें ॥ आ० ॥ ३ ॥ धागलें सरस रस शांतिजिनरासमां, तास रचना रचीगुं जलेरी ॥ वात विकथा तजी चित्त समता नजी, सांजलो बोडो निंदा अनेरी ॥ था० ॥ ४ ॥ सत्तर पंचाशीए राजनगरें रही, आदिजिन चरण सुपसाय साध्यो ॥ श्री सुमति सुगुरुतणुं सान्निध्य रामनें, आज यानंदनो पोप वाध्यो । आ॥ ५॥ सर्वगाथा ।। ४३७॥ गाथा तथा *लोक ॥ ४१ ॥ इति पंमित श्री रामविजयविरचित श्री शांति जिनवंधेप्राकृतप्न्वंधे सुरुतसंधे पूर्वनवानुवंधे मंगलकलशचरित्र प्रारुतहादश नवनिबंधे नवत्रयवर्णननामा प्रथमः खमः संपूर्णः ॥ १ ॥