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जैनकथा रत्नकोप नाग प्राठमो.
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ए, समरे महामुनि संत तो ॥ श्रीजि० ॥ ४ ॥ ए पंच मंगल मूलगाँए, ध्यातां हो जवनिस्तार तो ॥ शरण नहिं कोइ ए विना ए, नवमांहे रा खणहार तो ॥ श्रीजि ॥५॥ शरण हजो वली तुक नली ए, अरिहंत सिद्ध सुसाध तो ॥ केवलिनापित धर्मनुं ए, राखजो दिनमां समाध तो ॥ श्रीजि० ॥ ६ ॥ तुं कोनो नहिं ताहरु ए, कोइ नहिं जगमांहे तो ॥ एक जिनधर्म ने ताहरो ए, वलगजे एहिनी बांहे तो ॥ श्रीजि० ॥ ७ ॥ लख चोराशी खामजे ए, म धरिश कोइचं वैर तो ॥ स्वारथीयुं सहको म क्युं ए, वाहनां हो वहेती सेर तो ॥ श्री० ॥ ८ ॥ सगपण ए संसारनां ए, दूवां वनंती वार तो ॥ वहांलो वैरी थइ अवतरे ए, वैरी वहालो सं सार तो ॥ श्रीणा|| मिय्याः कृत दीजीयें ए, सेव्यां ए पाप प्रढार तो ॥ या जव परनव सेवीयां ए, दोष अनेक प्रकार तो ॥ श्री० ॥ १० ॥ जे तें कां वली कारव्यां ए, पनर ए कर्मादान तो ॥ त्रिविध त्रिविध वोसिरावजे ए, दुर्गतिनां ए निदान तो श्री० ॥ ११ ॥ सांजल या हारीपणुं ए, लाग्युं प्रनादिनुं केड तो ॥ क्यांहि रह्यो नहिं ए विना ए, हवे तस मूर्छा फेड तो ॥ श्री० ॥ १२॥ चार प्रकार याहारना ए,तुं वोसि रावजे श्राज तो ॥ रथ सरे जेम ताहरो ए, बलीयो य कर काज तो ॥ श्री० ॥ १३ ॥ शूर यजे तुं इष समे ए, म करीश कायर नाव तो || असुरसुरादिक स्थिर नहिं ए, ए संसार स्वभाव तो ॥ श्री० ॥ १४ ॥ जिनशेखर मनशुद्धि ए, सदहिया सवि वोल तो ॥ ध्यान धरे नवका रनुं ए, रह्यो मनें यह अमोल तो ॥ श्री० ॥ १५ ॥ पट्कायना जीव कपरें ए, राग ने द्वेष निवार तो ॥ या पूरुं करी प्रवतो ए, अष्टम कल्पमकार तो ॥ श्री० ॥ १६ ॥ न दीये हुंकारो यदा ए, जाएयुं गयो परलोक तो ॥ सुलस रुवे कंठ मूकीने ए, धर्म बांधवने शोक तो ॥ श्री० ॥ १७ ॥ हा जिनशेखर वांचवा ए, साधर्मिक गुणधार तो ॥ मुक मूकीने किहां गयो ए, यो उत्तर एली वार तो ॥ श्री० ॥ १८ ॥ धर्माराधनरहु श्री ए, मूकीने दुःखकूप तो ॥ सुरपदवी सहि पामीया ए, जाएं एमति थि स्वरूप तो ॥ श्री० ॥ १९ ॥ एणे व्यवसरे यात्री गोधिका रे, रस पीवा ति ठाय तो || पान करी पाठी वली ए, पुछें हो बलग्यो जाय नो ॥ श्रीणा२॥ किहां सुवे वेसे किन्हां ए, किहाइ बनो एए मेल तो ॥