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३७४ जैनकथा रत्नकोप नाग आठमो. करुणा मो नपरें ॥ १०॥ तुम हो वडे सिरदार के ॥ न ॥१२॥ कहे .. परिव्राजक काहेकुं ॥ अ० ॥ शोच करत दिल जीतरें ॥ ज० ॥ धन बहु . तेरा हे इहां ॥ अ॥ जिनमें दारिश दूर करे ॥न ॥ १३ ॥ सुलस . कहे मोकुं कहो ॥ १० ॥ धन मिले कोन उपायसें ॥ ज० ॥ रसकूपी । रस जो मिले ॥ अ० ॥ कंचन होवे आयसें ॥ ज० ॥ १४ ॥ सुलस कहे . फुरमावीयें ॥ अ० ॥ मुज लायक होवे काज के ॥ ॥ महिपीपुन कों आणि के ॥॥ तैलमें देपो आज के ॥ज॥१५॥ मृत महिषीपुल ले इधयुं ॥ अ० ॥ तैलमांहे षट्मास के पन॥ सुलसको किणहीके घरे ॥ अ० ॥ जिमाडे सो नन्नास के ॥ न ॥ १६ ॥ षटमासें दोय नीसरे ॥ य० ॥ पुस्तक पुन ले हाथ के ॥ज०॥ दोय तुंबी दोरी ग्रही ॥०॥ . मंचिका सीधी साय के ॥ ज० ॥ १७ ॥ गिरिविवरें दोय आवीया ॥९॥ यद पडिमा पूजी करी ॥ ॥ वलि देवे जूतदेवको ॥ सु ॥ आगे च ले दोनुं फिरी ॥ न ॥१॥ दीप कीयो उन पुलको ॥ सु० ॥ दोक जन आगे गये ॥ ज० ॥ चोरस रसकूप देखि के ॥ ॥ दो दीसमें हर्पित . जये ॥ ज० ॥ १५ ॥ वति देई कहे सुलसकों ॥ सु ॥ इस मांची पर वेत के ॥ ज० ॥ तुंव लेई दोन हाथमें ॥ अव ॥ जा रस लेणको तेल के ॥ न० ॥ २० ॥ सुलस गयो रसकूपमें ॥ सु० ॥ मुख समरे नवकार के ॥ ज० ॥ रस लेवा उद्यत थयो । सु ॥ शब्द सुएयो तेणी वार के । नम् ॥ २१ ॥ ए रस कोढी हे वूरो ॥ सु० ॥ मत करसें फरसो तुमें ॥ न ॥ तुं साधर्मिक माहरो ॥ सु० ॥ उनसें वारत हे अम्हें ॥ ज० ॥२॥ तनु रस लागेसें होवे ॥ सु० ॥ बिनमें प्रानको नाश के ॥ न० ॥ धाराधक जिनधर्मको ॥ सु० ॥ तुं यायो धनधाश के ॥ ज० ॥ २३ ॥ लावो तुंबक रस जरी देवं ॥सु॥ करूं तुमकुं साहाज के ॥ ज० ।। सुलत कहे तुमवंदन ॥अवे धर्म वांधवलाल ॥ वात कहो तुम थान के न॥४॥ बोखंमें एकत्रीशमी॥॥ढालकही धननपरेंनि॥ धन निज संकट थव गुणी॥ य० ॥ जे एकज उपकति करे ॥ ज० ॥२५॥ सर्व० ॥ १२ ॥
॥दोहा॥ ॥ कहे धर्म वांधव सुणो, लोन वडो जगमांहि ॥ लोनवशे ए जीवडो, पामे उरख यथाह ॥१॥ नयरी विशालामां वसुं, जिनशेखर थनिधान।