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शष्ट जैनकथा रत्नकोप नाग आठमो. जीदो रायें पूर्दा वत्सने, जीदो वत्स किहां लाध्यु एह ॥ जीहो वात कहे वीतक तणी, जीहो पर्यक हय विण तेह ॥ सु ॥ २२ ॥ जीहो देवी दीधुं वस्त्र ए, जीहो सुणी हरव्या राजान ॥ जी ॥ जीहो धन्य धन्य - सदु को कहे, जीहो वलीयो सुगुण निधान ॥ सु ॥ २३ ॥ जीहो सुखें स माधे रहे तिहां, जीहो विलसे नव नव जोग ॥ जीहो निजनारीशुं रंगमां, जीहो सरिखो मल्यो संयोग ॥ सु०॥ २४ ॥ जीहो पंचम खमें सत्तवी
शमी, जीहो ढाल कही मनरंग ॥ जीहो रामविजय कहे पुण्य थी, जोहो • लहियें सुरक अनंग ॥ सु॥ २५ ॥ सर्व गाथा ॥ ७६६ ॥ श्लोक ॥४॥
॥दोहा॥ ॥ एक दिन कमलश्री तणे, अंगें उपन्यो व्याधि ॥ राय उपाय कस्या घणा, पण न टली असमाधि ॥ १ ॥ राणीःखें फुःखीयो, राय करे अ ति शोर ॥ नयायकी आंसू जरे, सवलृ मोहनुं जोर ॥ २ ॥ कला घणी नृप केलवी, लेखे न आवी कांय ॥ राणी परलोकें गइ, विरु कर्म वलाय ॥३॥ यतः॥ सा नबि कला तं न, कि उसहं तं न किंपि विन्नाणं ॥ जे सा धरिज काया, खजंति कालसप्पेण ॥ १ ॥ पूर्वदोहा ॥ तास वियोगें राजवी, पड्यो शोकने पूर ॥ वत्सराज आवी कहे, शोक निवारो दूर ॥४॥ इण जग चिर नवि को रह्यो, सदु अनित्य संसार ॥ तन धन यौवन कारिमो, रमणी झदि परिवार ॥ ५ ॥ यतः॥ कुसग्गे जह उस विंड़ए, योवं चि लवमाणए ॥ एवं मपुआण जीवियं, समयं गोयम मा पमायए ॥ २ ॥
॥ ढाल अग्यावीशमी ॥ वही नावन मन धरो ॥ ए देशी ॥ वत्स कहे नृप सांजलो, एह अनित्यपणुं संसारे रे ॥ शुं धारे रे, अस्थिरने स्थिर करी चित्तमा ए ॥ १ ॥ नाव अनित्य संसारना, जलविंदु विद्युत् सम जाणो रे ॥ गुं माणो रे, वर्ण गंध रस फरसमां ए ॥ २ ॥ उत्पाद व्यय ने ध्रुव तणी, सवि व्ये त्रिनंगी नारखी रे॥ ए राखी रे, न रहे स्थिति संसारनी ए॥३॥ जिनवर चक्री जे दुवा, ते पण इहां स्थिर नवि रहिया रे ॥ शुं मोहि या रे, पूरे तुं परनावने ए॥ ४ ॥ वार अनंत मल्यो सही,ते संबंधमां गूं राचे रे ॥ वली नाचे रे, तेहने लंदें नट परें ए ॥ ५ ॥ चंचल ए लही