________________
२५३ जैनकथा रत्नकोष नाग आठमो. जगमें हितकार ॥ जिपंदजी॥ सुर नर असुर मल्या तिहां हो लाल, ले प्रनु संयम जार ॥ जि ॥ १ ॥ देसंकर जिन बंदीयें हो लाल ॥ वांदे शिव सुख थाय ॥ जि ॥ दोहग उरित दूरें टले हो ॥ दर्शन दोलत दाय ॥ ॥ जि० ॥ ३० ॥ २ ॥ सर्व सामायिक उच्चरे हो ॥ सिपने करे प्रणाम ॥ जि० ॥ मनःपर्यव तिहां उपन्युं हो॥ जाणे मन परिणाम ॥ जि०॥ के० ॥ ३ ॥ विचरे जिन पुहवीतले हो ॥ उपशम रसना सिंधु ॥ जि०॥ चाले र्या शोधता हो ॥ निरुपम जग जनवंधु ॥जि०॥ दे ॥॥ घाति कर्म दयें कपन्युं हो ॥ उज्ज्वल केवलरूप ॥ जि ॥ लोकालोक प्रका शतुं हो ॥ दायिक नाव स्वरूप ॥ जि ॥ ३० ॥ ५ ॥ वीश नुवनपति श्रावीया हो ॥ वत्रीश व्यंतर इंश् ॥ जि० ॥ दश वैमानिक ज्योतिपी, हो ॥ दोय चोश मली इंद ॥ जि ॥ दे ॥ ६ ॥ समवसरण देवें रज्युं होण॥ रचिया त्रण प्राकार ॥जि०॥ रौप्य कनक मणि रत्नना होगा ऊबके तेज अपार ॥ जि० ॥ दे ॥ ७ ॥ पूर्वछारें पेसीने हो ॥ सिंहा सन वेसंत ॥ जि० ॥ देमंकर अरिहंतजी हो ॥ देखी नवि उनसंत ॥ ॥ जि ॥ ० ॥ ॥ रयणसंचय पुरि परिसरें हो ॥ उत्सव अति मं माण ॥ जि ॥ श्राव्या वजायुध वांदवा हो ॥ नमे प्रनुचरण सुजाए ॥ जि ॥ ३० ॥ ए ॥ देमंकर जिन देशना हो ॥ नय उपनय अभुत ॥ नविक जीव ॥ कर जोडीने सांजले हो ॥ सवि सुर नर पद्त्त ॥ ॥ ज० ॥ के० ॥ १० ॥ कल्पतरु सुरधेनुथी हो ॥ अधिक महोदय हेतु ॥ ज० ॥ मूकी निज्ञ मोहनी हो ॥ धर्मगुं राखो हेत ॥ न ॥ ॥ ॥ ११ ॥ करीयें परीक्षा एहनी हो ॥ चिढुंने श्रुत शील ॥ न ॥ तप करुणा गुरू सेवतां हो० ॥ आपे शिवसुख लील ॥ ज० ॥ ३० ॥ १२ ॥ . जेम आयुर्वेदे कयुं हो० ॥ कर, पयर्नु पान ॥ न०॥ अविचारें थर्कादिनुं हो ॥ पीतां होवे गुणहानि ॥ न ॥ के० ॥ १३ ॥ बुध विचारे वेद्यतुं हो ॥ वायक पीवे तेह ॥ ज० ॥ वलपुष्टिकर धेनुनु हो ॥ पय मूकी संदेह ।। न० ॥ ३० ॥ १४ ॥ तेम यादरियं धर्मने हो० ॥ ए वायक थ विचार ॥ ज० ॥ माने निजकुल चालने हो० ॥ धर्म करी निधार ॥ न ॥ दे ॥ १५ ॥ धर्म यहिंसा लक्षण हो ॥ आतम गु-स्वनाव ॥न . परखी लीज प्रेमथी हो ॥ सहजगुरों सनाव ॥ ॥ दे ॥ १६ ॥