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३१४ जैनकथा रत्नकोष नाग बीजो.
॥दोहा॥ ॥ लघुनाई जिन नेमनो, रहनेमी जस नाम ॥ राजिमती रागीकरण, जाये नित तस धाम ॥ १ ॥ फल वस्त्रादिक मोकलें, पण ते जाणे एम ॥ नेम स्नेहथी मोकले, देवर ए रहनेम ॥ ३॥ शुरू हृदयथी ते लिये, प ण जाणे रहनेम ॥ फल वस्त्रादिक तो लिये, जो मुफ ऊपर प्रेम ॥३॥ हांसी करतां एकदा, कहे सुंदरी सुण वाण । नारी रतन तुफ परिहरी, मुफ नाता ते अजाण ॥४॥ पण तुज कांहि गयुं नथी, नोगव मुजगुं जोग ॥ फरि फरि यौवन दोहिलुं, दोहीलो ए संयोग ॥५॥ रहनेमी कामी तणो, राजिमती लही नाव ॥ धर्म कुशल धर्म वयणथी, पडिबोहे सदना व ॥ ६ ॥ पण नवि पडिबोही शकी, निजदेवर जिनचात ॥ हवे बीजे दिन झुं करे, ते सुगजो अवदात ॥ ७ ॥
॥ ढाल चौदमी॥ ॥ दे थाहरी मुफ पांखडी जी ॥ ए देशी ॥ एकदिन राजीमती सती जी, पीवे पय असराल ॥ रहनेमी आव्यो तदा जी, सा जांखे तिण ताल के ॥१॥ देवर माह्या हो राज वारु, मारी वात सुणो सुखकारु ॥ ए अांक णी ॥ कनकथाल लावो तुमें जी, वमन करूं तेह मांही ॥ ते लाव्यो उता वलो जी, धरतो हर्ष उमाहि के ॥ दे० ॥ ५ ॥ तेहमां वमन करी कहे जी, पान करो तुमें एह ॥ ते कहे केम ढुं कूतरो जी, पान करूं नहिं रेह के ॥ दे० ॥३॥ सा कहे जो जागो तुमें जी, तो मन करो विचार ॥ वमन क री मुफ्रने गया जी, जिनवर नेम कुमार के ॥ दे० ॥ ४ ॥ दुःखखाणी जा णी अंगना जी, त्याग करी गया तेह ॥ ते पीवा इबो तुमें जी, मांस रुधिर नरी देह के ॥ दे०॥५॥ तेहथी तुम सुख केम थशे जी, बो प्रचना लघ चात ॥ एह विमासो केम नहिं जी, एहथी नहिं सुख शात के ॥ दे॥६॥ कनककुंमी अशुचिनरी जी, कनकपिधान ते जाण ॥ बाहिर सुंदर देखीयें जी, माने सार अजाण के ॥ दे० ॥ ७ ॥ यतः ॥ सवैयो ॥ देह अचेतन, प्रेतदरी रज, रेत नरी, मल खेतकी क्यारी ॥ व्याधिकी पोट, अराधिकी Jट, उपाधिकी फोट,समाधिसों न्यारी ॥ रे जीन देह, करै सुखहानि, इतौ परि तो तोहिं, लागत प्यारी॥ देह तो तोहि, तजैगी निदान पै, तुहि तजे न क्युं, देहकी यारी ॥ १ ॥ वीजचंचल जेम नेहलो जी, अथवा रंग प