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वोर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला होकर वह गंगा नदी उत्तम श्री गृह के ऊपर गिरती हुई गोसींग के प्राकार होकर १० योजन विस्तार के साथ नीचे गिरती है।
गंगादेवी के श्रीग्रह का वर्णन जहाँ गंगा नदी गिरती है वहां पर ६० योजन विस्तृत एवं १० योजन गहरा १ कुण्ड है। उसमें १० योजन ऊंचा वज्रमय १ पर्वत है। उस पर गंगादेवी का प्रासाद बना हुआ है । उस प्रासाद की छत पर एक अकृत्रिम जिन प्रतिमा केशों के जटाजूट युक्त शोभायमान है। गंगा नदी अपनी चंचल एव उन्नत तरंगों से संयुक्त होती हुई जलधारा से जिनेन्द्र देव का अभिषेक करते हुए के समान ही गिरती है, पुनः इस कुण्ड से दक्षिण की मोर जाकर प्रागे भूमि पर कुटिलता को प्राप्त होती हुई विजया की गुफा में ८ योजन विस्तृत होती हुई प्रवेश करती है । अन्त में १४ हजार नदियों से संयुक्त होकर पूर्व की प्रोर जाती हुई लवण समुद्र में प्रविष्ट हुई है। ये १४ हजार परिवार नदियाँ आर्य खण्ड में न बहकर म्लेच्छ खण्डों में ही बहती हैं । इस गंगा नदी के समान ही अन्य १३ नदियों का वर्णन समझना चाहिए । अन्तर केवल इतना ही है कि भरत पौर ऐरावत में ही विजयार्घ पर्वत के निमित्त से क्षेत्र के ६ खण्ड होते हैं, अन्यत्र नहीं होते हैं।