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* श्री वीतरागाय नमः .
रचयित्री : विदुषी रत्न पू० प्रयिका श्री ज्ञानमती माताजी (प० पू० १०८ प्राचार्य श्री धर्मसागरजी महाराज संघस्था)
* मंगल स्तुति जिनने तीन लोक त्रैकालिक मकल वस्तु को देख लिया। लोकालोक प्रकाशी ज्ञानो युगपत सबको जान लिया ।। रागद्वेष जर मरण भयावह नहिं जिनका संस्पर्श करें। अक्षय सुख पथ के वे नेता, जग में मंगल सदा करे ॥१॥
चन्द्र किरण चन्दन गंगा जल से भी जो शीतल वाणी। जन्म मरण भय रोग निवारण करने में है कुशलानी।। सप्तभंग युत स्याद्वाद मय, गंगा जगत पवित्र करें।
सवकी पाप धूली को धोकर, जग में मंगल नित्य करे ।२। विपय वासना रहित निरंवर सकल परिग्रह त्याग दिया। सब जीवों को अभय दान दे निर्भय पद को प्राप्त किया। भव समुद्र में पतित जनों को सच्चे अवलम्बन दाता। वे गुरुवर मम हृदय विराजो सब जन को मंगल दाता।३।
अनंत भव के अगणित दुःख से जो जन का उद्धार करे। इन्द्रिय सुख देकर, शिव सुख में ले जाकर जो शोघ्र घरे।। धर्म वही है तीन रत्नमय त्रिभुवन की सम्पत्ति देवे।
उसके पाश्रय से सब जन को भव-भव में मंगल होवे ॥४॥ श्री गुरु का उपदेश ग्रहण कर नित्य हृदय में धारें हम । क्रोध मान मायादिक तजकर विद्या का फल पावें हम ।। सबसे मैत्री, दया, क्षमा हो सबसे वत्सल भाव रहे। सम्यक् 'मानमति' प्रगटित हो सकल प्रमंगल दूर रहे ॥५॥