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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
यंत्र के प्रयोग भी युक्तियों द्वारा बिगाड़ दिये जाते हैं। इस प्रकार छोटे २ परिवर्तन तो दिन रात होते ही रहते हैं।
इसका उतर जैनाचार्य इस प्रकार देते हैं
भूगोल का वायु के द्वारा भ्रमण मानने पर तो समुद्र, नदी, सरोवर आदि के जल की जो स्थिति देखी जाती है उसमें विरोध प्राता है।
जैसे कि पाषाण के गोले को घूमता हुआ मानने पर अधिक जल ठहर नहीं सकता है। अतः भू अचला ही है। भ्रमण नहीं करती है । पृथ्वी तो सतत घूमती रहे और समुद्र आदि का जल सर्वथा जहां का तहां स्थिर रहे, यह बन नहीं सकता । अर्थात् गंगा नदी जैसे हरिद्वार से कलकत्ता की ओर बहती है, पृथ्वी के गोल होने पर उल्टी भी बह जायेगी। समुद्र पोर कुत्रों के जल गिर पड़ेंगे । धूमती हुई वस्तु पर मोटा अधिक जल नहीं ठहर कर गिरेगा ही गिरेगा।
दूसरी बात यह है कि-पृथ्वी स्वयं भारी है। अधःपतन स्वभाव वाले बहुत से जल, बालू रेत आदि पदार्थ हैं जिनके ऊपर रहने से नारंगी के समान गोल पृथ्वी हमेशा घूमती रहे पौर यह सब ऊपर ठहरे रहें, पर्वत, समुद्र, शहर, महल आदि जहां के तहां बने रहें यह बात असंभव है।
यहां पुनः कोई भूभ्रमणवादी कहते हैं कि घूमती हुई इस