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* जैन जगती *
* अतीत खण्ड
श्री तीर्थ-यात्रा के लिये हर वर्ष जाते संघ थे; होते शकट, गज, अश्व के प्रति भूरि संख्यक संघ थे । आचार्य होते थे विनायक, संघपति भूपेन्द्र थे; थे अंगरक्षक क्षत्रपति, जिनके निरीक्षक इन्द्र थे ।। ३१६ ॥
ये पहुँच कर सब तीर्थ धर्माराधना करते वहाँ; सब काटने अघ, कर्म-दल धर्माचरण करते वहाँ । सबसे वहाँ पर पहुँच कर नृप क्षेम-शाता पूछते; आचार्य के थे चरण नृप कौशेय लेकर पूँछते ।। ३२० ।।
पश्चात इसके दान की, गृह-त्याग की सरिता चली; वह दीन-गहर, उजड़ जीवन को सरस करती चली। फिर देशना होती वहाँ गुरुराज की अमृत भरी; यों तीर्थ शोभा देख कर होती नतानन सुरपुरी ।। ३२१ ||
थी देश, जाति, स्वधर्म पर तब मन्त्रणा होती वहाँ; होते वहाँ प्रस्ताव थे, नियमावली बनती वहाँ । अपराध थे जिनने किये, वे दण्ड खुद लेते सभी; उपवास, प्रत्याख्यान, पौषध वे वहाँ करते सभी ॥ ३२२ ॥
स्थापित सभायें हो गई जब, कार्य निश्चित हो गये; अध्यक्ष, मन्त्री, कार्य-कर्ता, सभ्य घोषित हो गये; जब देश, धर्म, समाज के हल प्रश्न सारे हो गये; तत्र संघपति के कथन से प्रस्थान सत्र के हो गये || ३२३ ॥
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