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* जैन जगती
* अतीत खण्ड *
उपकरण स्वर्गिक ऐश का सब हाट में मौजूद था; सामान सारा निर्धनों को मिल रहा बिन सूद था । व्यापार सब विधि सत्यता की पीठ पर था चढ़ रहा; धन-लोभ हमको यो बधिर, अंधा नहीं था कर रहा ।। २६४ ॥
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रस, केश का, गजदन्त का व्यापार हम करते न थे; व्यापार पशुओं का नहीं था, लाख मधु छूते न थे । परिधान - पट का, हेम - मणि का कुल प्रमुख व्यापार था; अथवा कलाकृत वस्तु का व्यापार सहविस्तार था ।। २६५ ।।
था देश भारत स्वर्ण की विश्रुत तभी चिड़िया रहा; यह देश द्रव्यागार था, यह देश रत्नों का रहा । सम्पन्न जब यों देश को व्यापार से हमने किया; संतुष्ट होकर देश ने श्रीमन्त-पद हमको दिया ।। २६६ ॥
श्रीमन्त, शाह, शाहजी लक्ष्मीधरों के नाम हैं; बनिया, महाजन, वैश्य भी धनवंत के ही नाम हैं । था त्यागमय धन, ऐश; था उपकारमय जीवन रहा; भूपाल विश्रुत पद हमारा है यही बतला रहा ।। २६७ ।।
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व्यापार में वह धूम थी, होती समर में जो नही; थी बढ़ रही दिन दिन कृषी, मिलती न भूमी थी कहीं । थे व्योम-जल-थल - यान आते हीर पन्नों से भरे;
थे लौटकर फिर जा रहे रस, अन्न वस्त्रों से भरे ॥ २६८ ॥
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