________________
जैन जगती Recepcca
* अतीत खण्ड
हमारी सभ्यता आदिम हमारी सभ्यता के स्रोत का उद्गम कहो; गंभीर इतना ज्ञान है ? जो आदि का संवत् कहो। कर क्रान्तियें सब जाति की आध्यात्म-रस थे पी रहे; बीते हजारों युग उमे-तुम क्रान्तियें अब कर रहे ।। १०४॥ जिनवर ऋषभ को तुम कहो अब अब्द कितने हो गये ? कुल कर हमारे सप्त इनसे पूर्व ही है हो गये । जब अन्य जनपद के मनुज थे जम्बुकों-से चीखते; उस काल भारत वर्ष में हम काव्य-रचना सीग्यते ॥१०५॥ थे व्योमतल को चूमते प्रासाद, केतन हँस रहे; गृह-द्वार के तोरण हमारे चीर नभ थे जा रहे । चाहे किशोरी कल्पना इमको भला कोई कहें; तनुमान था जब पंचशत धनु, मान केतन का कहें ।। १०६ ।। जो आज के दिन जग रहे, वे आज-सा ही जानते; या राग से, या द्वेष से संकोच करते मानते । कुछ वीर संवत् पूर्व के हैं चिह्न हमको मिल रहे११८; जिनसे हमारे काल का अनुमान जन हैं कर रहे ॥ १० ॥ ये नर अकिंचन आज के सम्पन्न निज को कह रहे; मत्सरमय महाशान्ति के ये बीज जग में बो रहे । थल, जल, गगन मब ठौर अत्याचार इनके होरहे; सम्पन्न हो सब भाँति से उपकार हम थे कर रहे ॥ १०८॥