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जैन जगती
* परिशिष्ट
पुनः इन्होंने समस्त जैन-प्रन्थों को पुस्तकबद्ध किया । इनके समय में केवल एक पूर्व का ज्ञान रह गया था ।
१४२ - पादलिप्ताचार्य -ये महाविद्याओं में पारगामी थे। इन्होंने 'तरंगलोला, निर्वाणकलिका तथा प्रश्नप्रकाश' नाम का ज्योतिष शास्त्र लिखा है । नागार्जुन ने भी इन्हें अपना गुरु माना था । नागार्जुन श्रायुर्वेद के धुरन्धर ज्ञाता हो गये हैं । ये जड़ी बूटियों से स्वर्ण बनाते थे । इसका इन्हें बड़ा गर्व था । एक दिन आप पादलिप्ताचार्य जी से मिलने गये, लेकिन उन्हें वन्दन नहीं किया । पादलिताचार्य ने अपने मूत्र से एक पत्थर को स्वर्ण-खण्ड बना दिया, यह देखकर नागार्जुन बड़े लज्जित हुए और पादलिप्राचार्य को वंदन किया ।
१४३ - देखो १४२
१४४ - सिद्धसेन दिवाकर ये संस्कृत के बड़े शक्तिधर विद्वान हो चुके हैं। राजा विक्रम के नवरत्न भी इनके आगे निस्तेज हो गये थे और विक्रम ने जैन-धर्म स्वीकार किया था । इन्होंने कल्याणमन्दिर-स्तोत्र रचकर महाकालेश्वर के लिंग में से भगवान पार्श्वनाथ की मूर्ति उद्घटित की थी।
१४५ - वादीन्द्र देवसूरि-ये आचार्य सौराष्ट्रपति राजा सिद्धसेन के समय में हुए हैं। राजा ने खुश होकर इन्हें वादीन्द्र की उपाधि अर्पण करी । 'स्याद्वादरत्नाकर', 'प्रमाणनयतत्वालो. कालंकार' जो समस्त संस्कृत साहित्य में अद्वितीय ग्रन्थ माने जाते हैं इन्हीं आचार्य के बनाये हुए हैं ।
१४६ - बादी देवसूरि - देवसूरि नाम के एक भाचार्य
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