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जैन जगती RECERak
* अतीत खण्ड
जाना नहीं था यह किसी ने यह दशा हो जायगी ! रंभा सरीखी आय भूमी श्वान-घर बन जायगी ! जिस पर चले थे देव फूले हंस की-सी चाल से; उस पर चलेंगे अब मनुज हम दनुज की-सी चाल से ! ॥४॥
हो क्या गया इस भाँति तुझको हे दुखे ! हे मात रे ! हा ! चन्द्र-सा आनन कहाँ वह ! क्षीणतम यह गात रे ! अभिराम सुषमा होगई जो लुम्न पतझड़-काल मेंउद्यान में देखी गई फूली हुई मधुकाल में !!! ॥५॥ पर हाय ! तेरे रूप का तो दूसरा ही हाल है; मधुकाल अगणित जाचके, बदला न कुछ भी बाल है! पगली तथा तू क्षीण-वदना ! काल-अभिमुख-गामिनी, क्या अन्त तेरा आलगा है ? अस्थि-पिंजर-वाहिनी !!! ।।६।। चिन्ता नहीं है, आज जो तू पद-दलित यों होगई; हा! देव-धरती! आज तेरी क्या दशा यह होगई ! टूटे हुये भी हार फिर से सूत्र में पोये गये ! अनमोल मुक्ता सूत्र तेरे क्या सदा को खो गये ? ॥७॥
चिंता न है कुछ इस पतन से, यद्यधिक हो जाय तो; हम हों समुन्नत, भाव यह हर व्यक्ति में जग जाय तो। तमलोक का सीमान्त ही प्रारंभ शुच्यालोक का; हम हैं पुरुष, पुरुषार्थ ही उन्मूल करता शोक का ॥८॥