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*जैन जगती
* विनय
अभिभूत हम सर्वत्र हैं; आधून हैं, हम न्यस्त हैं ! हे कंबु ध्वज, जग-शृंग पर फिर से हमें पहुँचाइये ॥
बढ़ते रहे गोकुल जहाँ, गोबध वहाँ अब बढ़ रहे ! हे नाग-ध्वज ! जग को अहिंसावाद फिर बतलाइये । हम भीत हैं, कायर, नपुंसक, स्त्रेणता में हैं सने । हे सिंह- ध्वज ! नशमें हमारे सिह-बल प्रगटाइये || हे ! हे कालिके ! उल्बण इन्हें कह दीजिये; भगवान भारत वर्ष को द्रुत दौड़ कर अपनाइये || भगवान भक्तोद्धार में हे ! अब न देर लगाइये । अवसर नहीं हैं सोचने का मा! इन्हें समझाइये ||
यो पतित होकर नाथ ! तुमको भज सकेंगे हम, कहो ? भगवान अपने भक्त को यों दीन लख सकते, कहो ? तुम हो दिवौकस, हम अधोमुख, क्या उचित यह है तुम्हें ? जिस स्थान से हम लख सकें तुमको वहीं रखदो हमें ॥ तुम मोड़ दो चाहे गला अपने सुकोमल हाथ से; इसमें न हमको है हिचक करुणानिधे ! हे श्रीपते ! पर स्पर्श तक करने न दो हमको किसीके हाथ से; मुक्तीपते ! मुक्तीपते !! शिवश्रीपते ! शिवश्रीपते !!
बागरा ( मारवाड़ )
फाल्गुन शुक्ला ६, शनिश्चर १६६८
२१-२-४२.
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