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जैन जगती
भविष्यत् खण्ड
सब हो सभासद वैतनिक मिलता उचित निष्क्रय रहें; उनके करों में डोर हो, उनके करों में बल रहें । प्रत्येक तीजे वष पर ये सब सभासद हों नये; वे हो सकेंगे सभ्य, जिनके अधिक अभिमत हो गये ॥१८॥
इसकी अनेकों शाख हों सर्वत्र फिर फैली हः सबकी व्यवस्था एक से ही ढंग पर हो की हुई। सबकी प्रणाली एक हो, कतव्य सब का एक हा; हो भिन्न सबके कार्य-गुण, पर केन्द्र सब का एक हो ॥१८६।।
विद्वद्-सभा, विधा-सभा, कौशल-सभा, शिल्पी-सभा, छात्र-परिषद, युवक-परिषद, युवती-सभा, नारी-सभा। शिक्षण-सभा, साहित्य परिषद, बाल-विधवादल-सभा; विज्ञान-परिषद, धर्म-परिषद, राजनैतिक दल-सभा ॥१८॥
श्रीसाधु-परिषद, कुवर दल-कन्या कुमारी परिषदा; दीक्षा-सभा, मन्दिर-सभा श्री तीर्थ-रक्षण-परिषदा। इश सभाश्रम, समिति, दल, मण्डल अहो ! स्थापित करें; बीते हमारे दिवस वे पीछे नहीं क्यों फिर फिरें ॥१८८।। बिन राज्य के भी राज्य की हम नींव ऐसे गड़ सकें। उत्थान की सोपान पर हम दौड़ ऊँचे चढ़ सकें ! हो ऐक्यता जिस ठौर क्या होती नहीं साफल्यता ? बढ़ने लगें धन, धर्म, यश, घटने लगें वैफल्यता ॥१६॥
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