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जैन जगती, PeacetuRecar
ॐ भविष्यत् खण्ड. अतिचार, शिथिलाचार गुरुवर ! आपका अब लेख्य हैं ! घृत-दुग्ध की बहती हुई सरिता तुम्हारी पेख्य है ! मिष्टान्न विन अब एक दिन होता तुम्हें गुरु ! भार है ! मेवे, मसाले उड़ रहे-अंगूर बस रसदार हैं !!! ॥ ५० ॥
गुरु ! पड़ गये तुम स्वाद में,-उपवास,व्रत सब उड़ गये ! श्रतएव गुरुवर ! श्रावकों के दास, भिक्षुक बन गये ! अब प्रेमियों के दोष गुरु! यदि आप जो कहने लगे;धृत-दुग्ध, रस-मिष्ठान्न में गुरु ! दुख तुम्हें होने लगे ।। ५१ ।।
उपवास दो-दो माह के भी आज तुम में कर रहे;हा ! हंत ! ये सब मान-वर्धन के लिये हो कर रहे ! पाखण्ड-प्राणा साधुओं का राज्य है फैला हा ! सहवास इनका प्राप्तकर सद्साधु भी मैला हुआ!! ॥५२॥
गुरु ! वेष धारी साधुओं की क्यों भला बढ़ती न हो; जब है इधर पड़ती दशा, फिर क्यों उधर चढ़ती न हो! शिशु क्रीत करने की प्रथा तुम में विनाशी चल गई ! वे क्रीत दीक्षित क्या करें, जिनके हृदय की मर गई !! ॥५३॥ निःरक्त होकर विश्व से नर साधु-व्रत धारण करे,कल्याण वह अपना करे, त्रय ताप वह दारुण हरे। गुरुदेव ! पर यह बात तो है आपके वश की नहीं: अब आप इसमें क्या करें, जब भावना जगती नहीं ? ।। ५४॥