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B जैन जगती ॐ वर्तमान खण्ड फिर से दयामय ! मानसों में प्रेम-रस भर जाइये; हम पतित होकर हो रहे पशु, मनुज फिर कर जाइये। गौपाल बनकर नाथ ! कब होगा तुम्हारा अवतरण ? अब दुख अधिक नहिं दीजिये, हर लीजिये अब तम तरुण ॥३२०॥ स्वाधीन भारतवर्ष हो, इसके सभी दुख नष्ट हो; यह सह चुका है दुःख अति इसको न आगे कष्ट हो। हम भी हमारी ओर से करते यहाँ सदुपाय हैं; पर आपके बल के बिना तो यत्न सब निरुपाय हैं ॥३२।।
कैसे कहूँ भावी यहाँ ? कैसे सजग परिजन करूँ ? मैं आप तिमिराभूत हूँ, कैसे तिमिर में पद धरूँ ? जिस युक्ति से भावी कहूँ, वह युक्ति तो बतलाइये; दैवज्ञ मैं तो हूँ नहीं, यह आप ही लिखवाइये ॥३२॥
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