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जैन जगती,
वर्तमान स्त्रण्ड 8
त्रिम्य ऐसे से कभी संमान बढ़ सकते नहीं; शव को भले पकड़े रहें, पर प्राण आ सकते नहीं। आडम्बरों के शव जलाओ, तब कहीं जीवन रहे; है नीर तो सर में नहीं, पंकज वहाँ पर उड़ रहें ? ॥३१०।।
दम्भ-पारखएड हम जैन हैं, जैनत्व तो हम में नहीं हरिनाम को!हम खोजते हैं रात दिन रति-पार्श्व में आराम को ! जल छान पीने में अहो! जैनत्व सारा रह गया ! काँदे, लपुन के त्याग में बस त्याग समुचित रह गया ॥३१॥ अभिमान सच्चे जैन होने का न फिर भी छोड़ते ! मिथ्यावरण को तोड़ कर हम आँख तक नहिं खोलते ! इस दम्भ में, पाखण्ड में, बस दम हमारा जायगा! पाखण्ड-कालीरात में जैनत्व शशि छिप जायगा !!! ॥ ३१२॥ हममें न अव वह तेज है, विभुवर ! नहीं वह शक्ति है ! हममें न वह व्यक्तित्व है, हम अब नहीं वे व्यक्ति हैं ! श्रीमन्त अब वैसे नहीं, वैसे न पंडित योग्य हैं ! पर दम्भ तो सूखा हमारा लेखने ही योग्य है !!! || ३१३।।
आवेदन कितने दया के पात्र हैं, देखा दयासागर प्रभो ! कैसी दुराशागत दशा हा ! हो गई जिनवर विभो ! हे नाथ ! तुम सर्वज्ञ हो, मैं क्या तुम्हें नूतन कहूँ ? पर आँह तो तुम ही कहो,किसको भला तुम बिन कहूँ ॥३१४॥
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