________________
जैन जगतो
ॐ वर्तमान खण्ड #
व्यापार में व्यवसाय में संकोच है होता तुम्हें ! भूखे उदर तुम सो सको, पर हाट में लज्जा तुम्हें ! हा! मद्य-सेवन चिह्न तो कौलिण्य का तुम मानते!कौलिण्यता-मदिरा-रमण कुल के शराबी जानत ! ।। २५० ॥
स्वास्थ्य अगणित हमारे रोग हैं, हा! एक हो तो बात हो। हे नाथ ! काली रात है, कैसे दिवस का प्रात हो! मुझको यहाँ पर मानसिक संताप गिनने है नहीं; अवकाश गिनने का कहाँ ! जब स्वास्थ्य अच्छा है नहीं।।२५१ ! ऐसा न कोई रोग है, जिसका न हममें भाव हो! वह रोग ही कैसा भला जिसका न हम पर दाँव हो! संख्या हमारी लक्ष तेरह-रोग तेरह कोटि हैं ! सब बाल शिर के उड़ गये-मिलती न शिर पर चोटि है ।।२५२।। यदि काम कोई आ पड़े, दो कोश जा सकते नहीं ! यदि बोझ कुछ लेना पड़े, दो कदम चल सकते नहीं ! कुछ मसनदों के हैं सहारे, राख में कुछ लोटते ! हैं लोटते इस भाँति-क्या गदभ विचारे लोटते ।। २५३ ।। हमको कभी निज स्वास्थ्य का होता न कुछ भी ध्यान है ! क्या रोग तन को हो गया--कोई न इसका भान है ! विश्वास तुमको हो नहीं, मृत-तालिका तुम देखलो ! हा ! ब्रह्मव्रत जिसमें न हो, उसका मरण यो लेखलो ! ॥२५४।।