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® जैन जगती
8 वर्तमान खण्ड
शिक्षा न दीक्षा है यहाँ, आलस्यता उन्माद हैं; अपखर्च, चौर्याचार हैं; स्वच्छंदता, अपवाद हैं ! कितनेक शिक्षण भवन हैं ? जो गर्वपूर्वक कह सकेंहम धर्म सेवी भक्त इतने देश को है भर सकें ।। १६० ।। तुमको हमारे गुरुकुलों में यह नयापन पायगा; बस जैन बालक के सिवा बालक न दुजा पायगा ! नहिं जाति के, नहिं धर्म के, नहिं देश के ये काम के; ये उदर-पोषक हाट हैं अध्यापकों के काम के !!! १६१।। आदर्श, पंडित, योग्य शिक्षक यदि कहीं मिल जायगा; या रह सकगा वह नहीं, या वह निकाला जायगा। चारित्र से ये भ्रष्ट उसको हाय ! रे ! बतलायँगे! षड़यंत्र ऐसे जैन-शिक्षणशाल में नित पायेंगे ! ॥ १६२ ।।
विद्वान् हम विज्ञ प्राकृत के नहीं, विद्वान् संस्कृति के नहीं ! विद्वान् श्राङ्गल के नहीं, हम विज्ञ हिन्दी के नहीं ! हम में न कोई 'गुप्त' से 'हरिऔध'-से हैं दीखते! दीखें कहाँ से ! बालपन से हाट करना सीग्यते !! ॥ १६३ ।। लिक्वाड़ छोरे हो रहे जिनको न कुछ भी ज्ञान है। अपवाद, खण्डन रात दिन करना जिन्हों का ध्यान है। यदि भाग्य से विद्वान कुछ हरिनाम को पा जायँगे; वे साम्प्रदायिक द्वेप-मत्सर में पगे हा पायेंगे ! ॥ १६४ ॥
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