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जैन जगती
* वर्तमान खण्ड
ओ! देखते हो क्या दिगम्बर ! चार तुममें भेद हैं; आशा न तुम जय की करो, तुममें जहाँ तक छेद हैं । हा ! श्वेताम्बर भी अहो ! है खण्ड-मण्डित हो रहा; बाहर तथा भीतर अहो ! यम-चक्र गतिमय हो रहा ।। १२५ ।।.
बावीसपंथी मूर्तिपूजक लड़ रहे मुख-पत्ति पर ! दोनों हताहत हो रहे गेसें विषैली छोड़ कर ! झगड़े सभी इनके अहो ! बेनीम हैं निस्मार हैं ! बावीसपंथी मन्दिरों को तोड़ने तैय्यार हैं !! ।। १२६ ।।
वैष्णव - सनातन मन्दिरों में शौक़ से ये रह सकें; चौमास-भर ये इतर मत के मन्दिरों में रह सकें । पर जैन मन्दिर के नहीं ये सामने तक जायँगे; हा ! चीर कर ये दुर्दिवस कैसे भले दिन श्रायँगे !!! ।। १२७ ॥
क्या अर्थ 'पूजा' का करो ? क्यों हो परस्पर लड़ रहे ? अन्तर तुम्हारे बोलता क्या काल ? क्यों तुम अड़ रहे ? आतिथ्य, रक्षण, मान, अरु औचित्य इसके अर्थ हैं; अनुसार श्रद्धा, भक्ति के बहु रूप हैं, बहु अर्थ हैं ॥ १२८ ॥
अनुकूल पाकर अन्न ज्यों जीवन हमारा खलु बढ़े; कृत काम हो ज्यों काम में आगे हमारा मन बढ़े । चिरकाल रखने के लिये ज्यों चित्र मण्डित चाहिएजीवन जगाने के लिये अनुकूल साधन चाहिए ।। १२६ ।। . :
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