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जैन जगती SEARCH
प्रतीत खण्ड 8
इन मंदिरों के आय-व्यय को आँक हम सकते नहीं; क्या तीर्थ-धन खाकर धनी हैं बन गये गुण्डे नहीं। मन्दिर पुराने सैकड़ों पूजन बिना हैं सड़ रहे; हम घटरहे हर वर्ष हैं, पर चैत्यगृह नव बढ़ रहे ।। २० । अब धर्म के भी कार्य में प्रतियोगितायें चल रहीं; बढ़कर हमारे हो महोत्सव-योजनायें बन रहीं। हा ! जाति निर्धन हो चुकी, व्यापार चौपट हो चुका; पड़ धर्म भी प्रतियोगिता में भ्रष्ट सारा हो चुका ।। २१ ।। हम मूर्ख हैं अनपढ़, तथा, नहिं सोच भी हम कुछ सकें; फिर व्यर्थव्यय, अपयोग को हम समझ भी क्या कुछ सके ? हम श्रेष्ठि, शाहूकार हैं-धन क्यों न पानी-सा बहे; वे राम-पूर्वज मर गये ! मणि कपि-करों में क्यों रहे ? ॥ २२ ॥
अपयोग किस काम में हम दे रहे धन-देखते नहिं कार्य हैं; परिणाम तब उस द्रव्य का होता नहीं शुभ आर्य है ! कुछ द्रव्य की करना व्यवस्था है हमें आती नहीं, हा ! दूसरों की राय भी लेनी हमें भाती नहीं ।। २३ ॥ उत्साह में आकर अहो! हम शिक्षिणालय खोल दें; होकर प्रभावित शीघ्र ही हम दान-शाला खोल दें। धर्मार्थ भोजन-धर्म-गृह यदि खोलते देरी करें; उतनी अननोपासना में हाय ! हम देरी करें ।। २४ ।।
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