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॥५॥ बौतौ नाथूराम अनारी, तूं तजदै कुमता नारी, तुम्हें बुलाय गईरे बन्ना, सैन चलाय गईरे बन्ना ॥६॥
उपसंहार ॥
दोहा॥ समधन सम धन अन नहीं, सो समधी आधीन । समधन मम धन जानिये, ता बिन चित्त मलीन ॥१॥
कवित्त ॥ समधन के निकट नित्य रहत अहंत देव, समधन तें रमत नित सिद्ध परमात्मा ॥समधन की चाह कर ध्यान धरें प्राचारज, उपाध्याय साधु श्री अवृती अंतरात्मा ॥ समधन से प्रेम करें लोक परलोक बने, पायौ समधन तिन मम धन को रस बमा ॥ समधन के प्रेम मांहि फस रहौ मेरो मन, हे प्रभु ! समधी देहु मम धन करि के क्षमा ॥१॥
सोरठा॥ समधन समधी प्रेम, मम धन मम धी है नहीं। निजधन निज धी जेम, सो नित मन में धारिये ॥१॥ 'समधन सुख करतार, समधी तें नित रमत है॥ यामें फेर न सार, मोक्ष मार्ग हित कारिणी ॥२॥ समधन सम धन नाहिं, शोध शोधिया ने कियौ। तातें मम उर चाह, निशदिन सम धन मिलन की ॥३॥
सम्पूर्णम् ॥