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________________ ( ११७ ) इसकी हानी हो जाती है अर्थात् लाभकी इच्छा करता हुआ व्यय हो जाता है, और इसके वास्ते दीन वचन बोलते हैं, नीचौकी सेवा की जाती है अर्थात् ऐसा कौनसा दुःख है जो परिग्रहकी आशावान्को नहीं प्राप्त होता ? चित्तके संक्लेष मनकी पीड़ाओंको भी येही उत्पन्न करता है, इसलिये सूत्रों में लिखा है कि ( मुच्छा परिग्गहो वुतो) मूर्छाका नाम ही परिग्रह है। सो मुनि किसी भी पदार्थ पर ममत्व भाव न करे और शुद्ध भावोंके साथ पंचम महाव्रतको धारण करे, और अपरिग्रह होकर पापोंसे मुक्त होवे, माण मोती आदि पदार्थोंको वा तृणादिको सम ज्ञात करे और मान अपमा. नको भी सम्यक् प्रकारसे सहन करे, सर्व जीवोंमें समभाव रक्खे, अपितु सर्व जीवोंका हितैषी होता हुआ संसारसे विमुक्त होवे । और अष्ट प्रकारके काँके क्षय करनेमें कुशल जिसके मन वचन काया गुप्त है, मुख दुःखमें हर्ष विपवाद रहिन है, शान्ति __ करके युक्त है, वा दान्त है, जिसको शंखकी नाइ राग द्वेप रूपि रंग अपना फल प्रगट नहीं कर सक्ता, जिसके चन्द्रवत् सौम्य भाव है और दर्पणवत् हृदय पवित्र है, और शून्य स्थानों में जिसका निवास है, इत्यादि गुणयुक्त ही मुनि इस व्रतको धा. रण कर सक्ते हैं।
SR No.010234
Book TitleJain Gazal Gulchaman Bahar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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