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________________ स्थानं एते नव संख्याकास्तथ्याः अवितथाः भाषाः संति इति सम्बन्धः नव संख्यात्वं हि एतेषां भावानां मध्यमापेक्षं जघन्यतो हि जीवाजीवयोरेव बन्धादीनां अन्तभावात् द्वयोरेव संख्यास्ति उत्कृष्टतस्तु तेषां उत्तरोत्तर भेदविवक्षया अनन्तत्वं स्यात् ॥ भावार्थ:-तत्व नब ही है जैसे कि जीवतत्त्व १ अजीवतव २ पुण्यत्तत्त्व ३ पापतत्त्व ४ आस्रवतत्व ५ संवरतत्त्व ६ निजरातत्व ७ बंधतत्व ८ मोक्षतत्त्व ९ । सो जीवतत्व ही इन तत्त्वोंका ज्ञाता है न तु अन्य ॥ जीवतत्त्वमें चेतनशक्ति इस प्रकार अभिन्न भावसे विराजमान है कि जैसे सूर्य प्रकाश मत्संडीमें मधुरभाव ॥ अजीवतत्त्वमें जडशक्ति भी प्राग्वत् ही विद्यमान है किन्तु वह शून्यरूप शक्ति है। जैसे बहुतसे वादिन गाना भी गाते हैं किन्तु स्वयम् उस गीतके ज्ञानशून्य ही हैं । पुण्यतत्त्व जीवको पथ्य आहारके समान सुखरूप है जैसे कि रोगीको पथ्याहारसे नीरोगता होती है, और रोग नष्ट हो जाता है । इसी प्रकार आत्मामें जब शुभ पुण्यरूप परमाणु उदय होते हैं उस समय पापरूप अशुभ परमाणु आत्मामें उदयमें न्यून होते हैं किन्तु सर्वथा पापरूप परमाणु आत्मासे
SR No.010234
Book TitleJain Gazal Gulchaman Bahar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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