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________________ (२३) देवजीका जगन् बनानेका स्वभाव ही है, यदि केवल महादेवका स्वभाव मानने पर यह सब संसार हो सकता है तब महादेवजीको सर्वज्ञ, व्यापक और नित्य न मानना चाहिये, क्योंकि सर्वज्ञ, व्यापक और नित्य न होनेपर भी महादेव अपने स्वभाव से ही इस संसार चक्रको घुमावेगा, हम तो बिचारे के सुख के लिये मी. गंगाधर जी को कहते है की महादेवजी की तरह सकर्मक आत्मा में अपने कर्म का फल पाने का, और यह सृष्टिको चलाने का स्वभाव मान ले और महादेवजी को तो पार्वती के चरणरेणुका स्पर्शसुख लेनेमें अन्तराय न करें, और मी० गंगाधरजीने जो पूर्वमें कुतर्क दिखलाये हैं कि कर्म जड होनेसे उससे सहकृत आत्मा कुच्छभी नहीं कर सकता है, तो वह कुविकल्प स्वभाववादमें नहीं चल सकता. जैसे लोहचुम्बक जड होनेपर भी निज स्वभावसे दूरस्थितभी लोहाको, खींचता है, दूरबीन और खुरवीन यह दोनो यन्त्र जड कांचके वने हुए है तब भी उससे सहकृत पुरुष दूरकी बस्तुको और सूक्ष्म पदार्थ को भी प्रत्यक्ष करलेता है, फोनोग्राफ जडहोने पर भी सब तरहके शब्द, सवतरहकी भाषाको बोल सकता है, ज्यादा क्या कहैं, परन्तु सकर्मक जीव, विना जड एक कदम भी नहीं दे सकता है. इसलिये सकर्मक आत्माका पूर्वोक्त स्वभाव मानने में कोई भी हानि नहीं आती, तो बिचारे बूढे महादेवजी को क्यों सताते हो? और जैन
SR No.010234
Book TitleJain Gazal Gulchaman Bahar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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