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________________ ( ८) नैष वस्त्वन्तराऽभावसंवित्त्यनुगमाहते । १।" । जगत में वस्तु केवल भावरूपही नहीं है क्योंकि यदि भावरूप होती तो घट भी पटभावरूप, अश्वभावरूप, हस्तिभावरूप होता, और वस्तु केवल अभावरूप भी नहीं है- ऐसा माने तो सब का शून्यत्व का ही प्रसंग होगा, इस लिये सब वस्तु अपने रूप से याने अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूपसे तो सत् है और परकीयरूपसे याने पराया द्रव्य, क्षेत्र, काल भावरूप से 'असत् है जैसे कि- द्रव्यसे घट पार्थिवरूपसे है, परन्तु जलरूपसे नहि है, क्षेत्र से काशी में बना हुआ घट काशी का है, किन्तु हरद्वार का नहीं है; काल से वसन्त ऋतु में बना हुआ घट वासन्तिक है किन्तु शैशिर नहीं है; भावसे श्याम घट श्याम है, किन्तु रक्त नहीं है; 'यदि सब रूपसे वस्तु को सत् मानने में आवे तो एक ही घट का बहुत रूपसे ( इतर पटादिरूपसे ) भी स्थिति होनी चाहिये, इस लिये जैन तार्किकों का यह तर्क ठीक २ वस्तुका निश्चय ज्ञान दिखलाता है कि वस्तु स्वभाव से ही स्वरूप से सत् है और पररूपसे असत् है. और यह बात तो आबाल गोपाल प्रसिद्ध है. और शास्त्रीजी ने जो कहा कि "वस्तु में भावाऽभावरूप जो ज्ञान है वह भ्रमजन्य है" वह भी उनका कथन भ्रमविषयक है, क्योंकि भ्रमका जो 'अतस्मिन् तदध्यवसायो भ्रमः' याने जो घट में पटका ज्ञान होना
SR No.010234
Book TitleJain Gazal Gulchaman Bahar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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