SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १६१ ) बद्धका आहार २ अपक्क आहार ३ दुःपक आहार ४ तुच्छोपधिका आहार ५ ॥ इन पांच ही अतिचारोंको वर्नक फिर १५ कर्मादानको भी परित्याग करे क्योंकि पंचदश कर्म ऐसे हैं जिनके करनेसे महा काँका बंध होता है । सो गृहस्थोंको जानने योग्य है अपितु ग्रहण करने योग्य नहीं है, जैसे कि १ अङ्गारकम्मे-कौलादिका व्यापार ।। २ वणकम्मे-चन कटवाना क्योंकि यह कर्म महा निर्दयताका है। ३ साडीकम्मे-शकट ( गाड़े) करवाके वेचने । . ४ भाडीकम्मे-पशुओंको भाडेपर देना क्योंकि इस कर्म करनेवालोंको पशुओंपर दया नहीं रहती। ५ फोड़ीकम्मे-पृथ्वी आदिका स्फोटक कर्म जैसे कि शिलादि तोड़ना वा पर्वत आदिको। ६ दत्तवणिज्जे-हस्ती आदिके दांत्तोंका वणिज करना। ७ लख्खवणिज्जे-लाखका वणिज तथा मजीठाका व्यापार करना ।। ८ रसबाणिज्जे-रसोंका वनज करना जैसेकि घृत, नेल, गुड़, मदिरादि । . ९ केसवाणिज्जे-केशोंका वनज करना तथा केश शन्दके 5 अंतरगत ही मनुष्य विक्रियता सिद्ध होती है।
SR No.010234
Book TitleJain Gazal Gulchaman Bahar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy